शनिवार, 23 दिसंबर 2017

Braj 84 kos padyatra ke pal day 20

13/3/17-
 मथुरा- वृन्दावन में आकर यहाँ की होली में हम कुछ सखियों ने भाग लिया,और अपने परिवार के साथ कान्हा की नगरी में अद्भुत आंनद प्राप्त किया।जिस प्रकार हमारे शरीर में हमारी सांसो का वास है, बिना उसके ये शरीर कुछ भी नहीं, ठीक उसी प्रकार इस सम्पूर्ण जगत में कण- कण में कान्हा  का वास है। यदि किसी को प्रमाण चाहिए तो, एक बार ब्रज की रज में जरूर आना ,यहाँ आने मात्र से ही कान्हा का आभास होने लगेगा। यहाँ की हवा में, फिजा में, पेड़ में , फूल में, पत्ती में, मिट्टी में,यहाँ के लोगो में ,मंदिरों में ,हर पल गूंजते राधे कृष्णा के संगीत में ,हर छोटे से छोटे कण में बस वही- बांके बिहारी, गोविन्द गिरधारी ही वास करते हैं। जीवन में एक बार ये यात्रा जरूर करें कान्हा के साक्षात्कार करने के लिए। 
यात्रा की कुछ यादें ----























राधे राधे। 

Braj 84 kos padyatra day 19

12/3/17--भांडीरवन ,वंशीवट ,जमुना जी ,जयपुर मंदिर।

पदयात्रा का अंतिम दिन ,ये रात बहुत जल्दी बीत गयी। उठाने के लिए बजने वाली घंटी की आवाज कानो तक आने लगी।'' उठ जाओ सा ,मंजन कुल्ला कर ल्यो सा ''------सभी आवाजें आज मुझे बहुत ही अच्छी लग रही थी। कल से ये सभी कुछ हम बहुत याद करेंगे। आज रोज की तरह यहाँ से जल्दी तैयार होकर जाने का मन नहीं कर रहा ,क्यों की आज मुझे पता है की कल से ना ये भोर होगी ,ना ये  टैंट रहेगा ,ना ये उठाने के लिए आवाजें होंगी ,ना ये गरम गरम चाय होगी ,ना ही हमें कहीं जाने की जल्दी ,और ना ही  सबसे प्यारा ये  सखियों का साथ होगा।
आज सुबह से दिल गा रहा था ---अभी ना जाओ छोड़ कर ----------
तभी सरोज ने जोर से  बोला- अरे कहाँ खो गयी, चल आरती का समय हो गया है।  सुबह 4:00 बजे हम सबने मिल कर आरती की और यात्रा प्रारम्भ की। जब हमें किसी चीज या पल  के खोने का अहसास होता है, तो उस वस्तु या पल की उपयोगिता हमारे लिए और भी ज्यादा बढ़ जाती है। आज मेरे साथ भी यही हो रहा है,अब तक रोज होने वाली आम बातें, आज बहुत ख़ास लग रही थी। ये कच्चे पक्के रास्ते, रास्तों को दिखती ये टॉर्च,कंधे पर टंगा हर पल साथ निभाता ये बैग ,इन सभी का हमारी यात्रा में बहुत योगदान रहा। हर एक छोटी से छोटी बात आज सीधे दिल में उतर रही थी। आज यात्रा को सम्पूर्ण करने की ख़ुशी थी , क्यों की ये मेरे जीवन का बहुत ही साहसी कदम था, पर साथ ही निरंतर चलती इस गति को, इस यात्रा को, प्रकृति के साथ को खोने का गम भी था।

कभी साथ साथ कभी आगे पीछे चलते चलते हम लोग भांडीरवन पहुँचे। इस स्थान का बहुत महत्त्व है। यूँ तो राधे रानी भगवान् श्री कृष्ण की पत्नी नहीं हैं ,परन्तु गर्ग संहिता के अनुसार स्वयं भगवान् ब्रम्हा जी  यहाँ पर श्री कृष्ण और राधे रानी की विवाह लीला के साक्षी रहे हैं। उन्होंने ही उनका विवाह करवाया था। विवाह के पश्चात कान्हा ने  कई दिनों तक राधे रानी के साथ इसी भांडीरवन रास लीला की थी।विशाल वटवृक्ष के नीचे ये विवाह स्थल बहुत ही रमणीय स्थान है। इस वन के सभी पेड़ मात्र वृक्ष नहीं हैं ये सभी उस अनुपम लीला के साक्षी हैं। कहते है मथुरा - वृन्दावन की इस सम्पूर्ण यात्रा में आये प्रत्येक वन -उपवन ,लताएं सभी वे गोप गोपियाँ हैं वे साक्षी है जो भगवान् की रास लीला में उनकी सहायता करते थे और आनंद लेते थे प्रभु की अनुपम लीलाओं का। इसलिए यहाँ का प्रत्येक वृक्ष पूजनीय है.आते जाते सभी लोग इन वृक्षों को प्रणाम करते हुए जाते हैं। यहाँ के ये वन सचमुच बहुत सुंदर, आकर्षित और भिन्न आकर के हैं। आखिर ये कान्हा की नगरी है इससे ज्यादा सुन्दर और क्या हो सकता है।    
यहाँ से थोड़ी ही दूर बलदाऊ जी का मंदिर है जहाँ उन्होने प्रलम्बासुर का वध किया था। यहाँ के दर्शन कर हम वंशीवट पहुंचे। विशाल महारास स्थली जहाँ कान्हा जी और राधा जी के चरण दर्शन भी है। शरद पूर्णिमा के दिन कान्हा यहाँ वंशी वट के नीचे बांसुरी बजाते थे, जिसे सुनकर सभी गोपियाँ राधा अपने काम  छोड़ कर, यहाँ दौड़ी चली आती थी,कान्हा के साथ रास करने। हर गोपी के साथ उसके कान्हा नृत्य करते थे, जितनी गोपियाँ उतने कान्हा। कहते है आज भी गोपियों और कान्हा का महारास प्रत्येक शरदपूर्णिमा पर यहाँ होता है। यहाँ निरंतर बांसुरी की आवाज सुनाई देती है, वंशी वट में भगवान् की बाँसुरी आज भी गूंजती हैं। यहाँ की हवा में, पेड़ों के पत्तों में, मंदिर की घंटियों में ,एक मधुर संगीत है जो महसूस करने पर सुनाई देता है।  काश ये वन- उपवन निरंतर  चलते रहे, कान्हा की लीला उनकी बाते बस मैं यूँ  ही सुनती रहूँ।यह सब कभी समाप्त न हो ये यात्रा तो पूरे जीवन भर चलती रहे। आज यहाँ से जाने का मन नहीं  कर रहा, ऐसा बस मैं ही नहीं सोच रही, मेरी सभी सखियाँ भी आज उतनी ही व्यथित हैं जितनी मै हूँ।
पास ही जमुना जी का वो किनारा था, जहाँ से हमने यात्रा प्रारम्भ करने का संकल्प लिया था। आज फिर से हम
वहीं यात्रा सम्पूर्ण करके पहुँच गए। ऐसा लग रहा था , जैसे अभी तक, हम सभी को किसी ने एक धागे में पिरो कर एक माला बनायीं हुई थी  और अब वो माला टूट कर बिखरने वाली है। हम सभी के हाथों में संकल्प पूर्ण करने के लिए जल था, और आँखों से गंगा जमुना की धारा बह रही थी,सभी अपने आप को रोक नहीं पा रहे थे। हम लोग बहुत भावुक होकर रोने लगे, गले मिल कर फिर से मिलने की आशा कर रहे थे। जिनके पास फोन थे उनके नंबर लिए और सम्पर्क में रहने को कहा।  जयपुर मंदिर जाकर सभी ने प्रसाद ग्रहण किया और सभी अपने होटल वाले कमरे पर पहुँचे, जहाँ हम सभी के परिवार के सदस्य हमारा इन्तजार कर रहे थे। जिन्होंने हमारा  शानदार स्वागत किया। एक परिवार को हम अभी -अभी छोड़ कर आये थे ,इसीलिए मन दुखी हो रहा था।  वहीं अपने परिवार के सदस्यों का यूँ मिलना हम सभी की आँखों में ख़ुशी भर लाया। 

अद्भुत, अकल्पनीय, अविस्मरणीय,
अनुभव जो हमेशा हमारी यादों में जीवित रहेगा। 
                              राधे राधे। 

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

Braj 84 kos padyatra day 18

 11/3/17-अक्षय वट ,चीर घाट ,नन्द घाट ,भद्रवन। 


रात्रि में आये तूफ़ान के कारण सभी कुछ व्यवस्थित करने में बहुत समय लगा, इसीलिए आज  सुबह 6:00 बजे यात्रा शुरू हुई।हल्के हल्के कोहरे की चादर छठ गयी थी। दूर दूर तक बिल्कुल साफ़ और सुन्दर नज़ारे सूर्य की रौशनी से खिल उठे थे।  लगभग 9 किलोमीटर चलने के बाद अक्षय वट आया, यूँ तो अक्षय वट प्रयाग में स्थित है।  जिसके विषय में कई पुस्तकों में लिखा गया है किन्तु, यहाँ वृन्दावन में भी एक अक्षय वट प्रसिद्द है ,जहाँ दुर्वाषा ऋषि ने तपस्या की थी और कई दिनों तक विश्राम किया था ,यहाँ यमुना जी के किनारे उनका मंदिर है। बसंत पंचमी पर यहाँ बहुत बड़ा मेला लगता है। वहां दर्शन इत्यादि करने के बाद हम आगे चीर घाट की ओर बढ़ने लगे।

  चीर घाट वही घाट है जहां श्री कृष्ण ने नहाते हुए गोपियों के कपड़े चुराए थे। यहाँ कदम्ब वृक्ष के नीचे घाट  पर कात्यायनी व्रत हेतु गोपियाँ स्नान करने आती थी। व्रत के अंतिम दिन श्री कृष्ण ने स्वयं वहाँ पधारकर वस्त्रहरण के बहाने उनको मनोभिलाषित वर प्रदान किया था। चीर घाट पर हम सभी ने नए वस्त्र साड़ियां इत्यादि चढ़ाई दर्शन किए। 

आगे नंदघाट दर्शन के लिए रवाना हो गए जहां पर बाबा नंद अपने गांव से नहाने आते थे। हमने भी नंद घाट में जाकर यमुना जी में डुबकी लगाई और पानी में खूब खेले एक दुसरे पर पानी उछाल कर हम सभी ने आपस में बहुत मस्ती की। यात्रा के इस अंतिम पड़ाव पर हम हर पल आनंद बटोर रहे थे। मात्र दो दिन की पदयात्रा ही शेष थी। इतने दिनों के साथ ने हम सभी के बीच की सभी दीवारों को मिटा कर एक परिवार की तरह जोड़ दिया था। यहाँ से आज हमें नाव में बैठकर यमुना जी के उस पार जाना है।यहाँ कई नाँव किनारे पर लगी हुई थी। जिनमें थोड़े थोड़े लोग बैठ कर जाने लगे, बीच में हमने  गंगा जमुना के संगम का दर्शन किया। यमुना जी के उस पार पहुँच कर हमने पुनः पैदल यात्रा प्रारंभ की





हमें भद्रवन पहुंचना था, जहां पर हमारा विश्रामगृह था।
ठन्डे पानी ने हम सभी में नयी ताजगी भर दी थी सभी के चेहरे खिल रहे थे हसी मजाक का वातावरण बना हुआ था। ऐसा लग रहा था जैसे यमुना जी ने हमारी थकान हमारे दर्द सभी ले लिए। शरीर और मन के सभी बोझ हम जमुना जी में ही छोड़ आये थे। ना जाने आज हमारे कदम चल रहे थे या जमीन यमुना जी से भद्रवन का रास्ता कब पार हो गया पता ही नहीं चला। आज पानी में कई देर तक रहने के कारण बहुत जोर से भूख लगी सभी ने मिल कर प्रसाद ग्रहण किया और सभी ने एक साथ मिल कर समय बिताने का निश्चय किया। बस दो दिन ही शेष है ये बात बार बार सभी के जुबान पर आ रही थी।  लेकिन आज भी मौसम का मिज़ाज कुछ ठीक नहीं था। तेज हवाओं के साथ बारिश की बौछारें आने लगी। हम सभी को कल रात्रि का अनुभव था , सभी अपने -अपने टैंट की तरफ भागने लगे। यहाँ आस पास कोई रुकने का दूसरा स्थान नहीं था। इसलिए सभी ने  अपने तंबुओं के चारों तरफ बड़ी-बड़ी मिट्टी की दीवारें खड़ी की ताकि हमारे टैंट में पानी ना भरे और हमारा सामान उन तंबू में सुरक्षित रह सके। ईश्वर की हम सबसे अद्भुत कृति हैं, हर एक परिस्थिति में रहने के हम अपने रस्ते निकाल ही लेते है। कुछ तो जादू है इस यात्रा में ,चाहे जैसी भी समस्या हो हमारे मन कभी घबराये नहीं कान्हा पर अटूट विश्वास हमें अँधेरे में रौशनी की तरह रास्ता दिखाता रहता था। आंधी ,तूफ़ान, बारिश सभी बस हमें छु कर चले गए। चारों तरफ  शांति छा गयी,उस शांति को चीरती हुई आवाज आने लगी ,गोविन्द बोलो हरी  गोपाल बोलो --------ढोलकी और झांझर की आवाज में भजन होने लगे। आरती का समय हो गया था हम सभी ने बहुत आनंद के साथ आरती की और भजन गाये।   इस समय यहां का वातावरण अद्भुत हो जाता है दूर दूर तक पूरी प्रकृति हमारे साथ नाचती गाती है। हरे कृष्णा के रंग में सभी कुछ कृष्ण कृष्ण हो जाता है। 
    राधे राधे। 

Braj 84 kos padyatra Day 17

10/3/17-नन्द बाबा का प्राचीन मंदिर ,गौशाला ,बिहार वन।

अंधेरे में छुपी रोशनी अंगड़ाई भर रही थी। भोर  के 4:00 बज रहे थे। सर्दियों की ठंडी -ठंडी सुबह में सभी शॉल और स्वेटर पहन कर यात्रा पर निकलने के लिए तैयार हो रहे थे, तभी सरोज ने कहा- बस अब 3 दिन और मजे कर लो, फिर तो बस घर में, वही घोड़े और वही मैदान। हम सभी सुनकर खूब जोर -जोर से ठहाके मार -मार कर हंसने लगे। हमारी हंसी के पीछे कहीं ना कहीं हमारे बिछड़ने का दर्द भी छुपा हुआ था। जो आज तो नहीं लेकिन जल्दी ही सामने आने वाला था।

आज हमारे कदम बिहार वन की तरफ बढ़ रहे थे जहां हमारा आज का पड़ाव था। रास्ते में 2 किलोमीटर अंदर जाकर यमुना जी के किनारे भगवान बलदेव जी के पूरे परिवार का प्राचीन मंदिर था।
हम सभी ने दर्शन कर थोड़ा विश्राम किया और खेत की पगडंडियों में से होते हुए कच्चे रास्ते से बिहार वन की तरफ निकल पड़े। बिहार वन में हम नंद बाबा की गौशाला पहुंचे जहॉ मंजरी गाय और नंदबाबा के समय से चली गो वंशावली के दर्शन किए। यहां बहुत बड़े-बड़े क्षेत्र में गौशाला बनी हुई है परंतु गायों को स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, पुराने समय की गौशाला आज भी उसी पुराने ढर्रे पर ही चल रही है, यह देख कर बहुत अच्छा नहीं लगा। आशा करती हूं कि जब तक हम अगली बार यहां आएंगे शायद यहां की स्थिति बहुत बेहतर होगी। हम सभी ने वहां अपनी श्रद्धा अनुसार दान किया और अपने विश्राम ग्रह के लिए रवाना हो गए।
दोपहर का भोजन कर हम सभी विश्राम कर रहे थे करीब एक-दो घंटे बाद चारों तरफ से आसमान में काले बादल घिर आए हमारी संध्या आरती और भजन का समय हो गया थाहम जहां पर रुके थे वहीं पास में एक मंदिर भी था । तेज बारिश आने के आसार लग रहे थे, इसीलिए सभी मंदिर में जा जाकर अपनी -अपनी जगह रोक रहे थे ।हमने भी सोचा कि हम हमारा सामान धीरे-धीरे करके उस मंदिर के बरामदे  में रख लेते हैं। अचानक, बहुत तेज तूफान जैसी हवाएं चलने लगी बादल गरजने लगे बिजली कड़कने लगी मेरे हाथ में दो बैग लेकर मैं मंदिर मे पहुंच गई। मेरी सभी सखियां भी आने ही वाली थी कि तभी बहुत तेज बारिश भी शुरू हो गई। काफी लोग टेंट खाली करके मंदिर में अपनी-अपनी जगह रोक चुके थे लेकिन मेरे टेंट में सरोज, रंजू, ममता और भी कई लोग फस गए थे। मैं लाचार होकर दूर बरामदे से उनको देख रही थी और वह टैंट के चारों कोने पकड़कर टेंट को हवा में उड़ने से बचाने के लिए उस तेज बारिश और तूफान से लड़ रही थी ।हम सभी का अभी बहुत सामान टेंट में ही पड़ा था। वहां राधावल्लभ नाम के सेवक ने हमारी बहुत मदद की हमारा सामान उस तेज बारिश में टेंट से मंदिर तक पहुंचाया। पूरा सामान आने तक मेरी सभी सखियां सर्दी में उस तेज बारिश में भीगती रही और उस टेंट को पकड़कर खड़ी रही यह सब देखकर मुझे बहुत अफसोस हो रहा था, लेकिन मैं कुछ भी नहीं कर पा रही थी। करीब 1 घंटे बाद बारिश थमी और सभी कुछ सामान्य होने लगा. हमारे बरामदे  में एक छोटा सा चूल्हा था । यहां गरम-गरम पूरियां छन  रही थी ,सब्जियां पहले ही बनकर तैयार हो रखी थी ,ठंडे ठंडे मौसम में सभी ने गरम-गरम प्रसाद ग्रहण किया और अपने-अपने सोने के लिए कोना  ढूंढने लगे मैं और सरोज इसी चूल्हे की गर्मी के पास ही अपना बिस्तर लगा कर सो गए। चारों तरफ सन्नाटा था सर्दी की रातें थी आज एक- एक रजाई भी कम पड़ रही थी ,सभी अपनी रजाई पकड़-पकड़कर सिकुड़ सिकुड़कर सो रहे थे। नींद में मुझे और सरोज को कुछ अजीब- अजीब सी आवाजें आने लगी, हमने अपनी टोर्च जलाई तो देखा कि हमारे साथ- साथ हमारे अंदर घुस- घुस कर वहां के आसपास के कुत्ते और कुत्ते के बच्चे भी सो रहे थे।हम पूरी रात उन्हें डरा डरा कर भगाते रहे , और तेज ठंड की वजह से वह कुत्ते पूरी रात हमारे आसपास हमारे अगल बगल में घुस कर सोते रहे, इस प्रकार हमने यह पूरी रात कुत्तों के साथ सोकर बिताई।यदि हमारा ध्यान हमारे लक्ष्य पर हो तो कितनी भी असामान्य परिस्थितियाँ हो हम बहुत सरलता से उन्हें स्वीकार कर उसमें ढल जाते हैं या उन्हें हमारे अनुकूल बना लेते हैं। राधे राधे। 

बुधवार, 12 जुलाई 2017

Braj 84 kos padyatra Day 16

9/3/17

फलेन गांव -जहाँ आज भी प्रहलाद मंदिर के एक पुजारी होलिका की चिता में स्वयं खड़े होते है, और उस अग्नि में से सुरक्षित बाहर भी निकल जाते हैं। 

बड़े- बड़े, घने- घने पेड़, घने जंगल की शांति को चीरती हुई मीठी -मीठी बांसुरी सी कोयल की कूक। यह सुबह बहुत निराली थी। यहां चारो तरफ बहुत सारी कोयल है, जो इन पेड़ों के पत्तों के पीछे छिप कर अपनी आवाज से आपके कानो में चाशनी सी घोल देती है । इतने प्यारे कोयल के संगीत की वजह से ही इस वन को कोकिलावन कहा जाता है, ऐसा माना जाता है कि यहां कृष्णा, गोपियों  और राधा को बुलाने के लिए पेड़ पर चढ़कर कोयल की कूक की प्यारी सी आवाज निकाला करते थे, वह आवाज इतनी मधुर और इतनी सुंदर होती थी ,कि सभी गोपियां उसको सुनकर कान्हा का इशारा समझकर अपना हर काम छोड़कर दौड़ी चली आती थी।
आज की यात्रा की पूरी तैयारी कर हमने राधे रानी की आरती की और निकल पड़े आज के नए अनुभव की तलाश में। कल की सभी बातों से सबक लेते हुए, आज हमने एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ा एक दूसरे का ध्यान रखते हुए हम पूरी यात्रा का एक साथ आनंद उठाना चाहते थे।
आज हमें फलेन गांव होते हुए पे गांव पर पहुंचना था। जो कि कोकिलावन से 10 -15 किलोमीटर दूर था। एक दूसरे के साथ हंसी- मजाक करते हुए, एक दूसरे का ध्यान रखते हुए हम आगे बढ़ते- बढ़ते  फलेन गांव पहुंचे।
फलेन गांव में प्रहलाद जी के कुंड और प्रहलाद जी  के मंदिर के दर्शन करने थे।  यहां से आते -आते रास्ते मे मुझे बहुत ही विचित्र बात का पता चला, कि प्रहलाद मन्दिर के एक पुजारी जो हर वर्ष होली के समय पर  होलिका दहन की अग्नि में  स्वयं प्रवेश करते हैं , और बिना किसी प्रकार की चोट के वे प्रहलाद की भांति उस अग्नि रूप चिता में से बाहर निकल आते हैं। ऐसी बातों पर जल्दी से विश्वास तो नहीं होता, इसीलिए उत्सुकता थी उन महात्मा के दर्शन करने की।
प्रह्लाद कुंड के जल में आचमन कर पूरी श्रद्धा के साथ हमने प्रहलाद मंदिर में भगवान नृसिंह और भक्त प्रहलाद के दर्शन किए, इस प्रकार के अद्भुत मंदिर आमतौर पर सभी जगह पर नहीं दिखाई देते। यहां भक्त प्रहलाद की पूरी कहानी भी लिखी हुई थी। सौभाग्य से वही महात्मा जिनकी मैंने कहानी सुनी थी, वह हमारे सामने ही मंदिर में आए हम सभी ने दूर से उनके दर्शन किए । देखते ही मन में कई प्रश्न उठ रहे थे ,लेकिन पता चला कि वह इस पूरे महीने मौन रहते हैं, और किसी से भी नहीं मिलते। उन्हीं के साथ रहते एक पंडित जी ने हमें बताया कि वो पुजारी जी  पूरे महीने अपने परिवार से दूर मंदिर में ही रहते हैं, और कंदमूल-फल ही खाते हैं, इसके अलावा वह रोज प्रह्लाद कुंड में स्नान कर मंदिर में ही भगवान प्रहलाद की दिन- रात सेवा करते हैं, उनका यह व्रत होलिका दहन के बाद ही खुलता है, पूरे महीने वे  इसी प्रकार व्रत का पालन करते हैं। आज के ठीक 3 दिन बाद वहां होलिका दहन था, दूर-दूर से लोग यहाँ की  होली को देखने आते हैं, और सभी बहुत आश्चर्य करते हैं, जब जलती हुई चिता समान होली में से प्रहलाद रूपी यह महात्मा बाहर निकल कर आते हैं। यही देखने के लिए देश -विदेशो  से दूर-दूर से सैलानी यहां आते हैं। पंडित जी ने बताया कि जब महात्मा जी उस जलती अग्नि में खड़े रहते हैं ,तब उनके विश्वास रूपी भगवान की श्रद्धा की रोशनी ही उन्हें रास्ता दिखाती है, जिसके सहारे वह उस गुफा रूपी चिता में से बाहर निकल जाते हैं । यह बात  स्वयं  महात्मा जी ने ही  पंडित जी को बताई थी, ऐसा उन पंडित जी का ही कहना था । मुझ जैसे कई लोगों को यह कहानी सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ । संदेह करने का कोई कारण नहीं था क्योंकि पूरे गांव में सैलानियों की भीड़ हमें दिख रही थी, एक बहुत बड़ा चोक था जहां होलिका दहन की पूरी तैयारियां चल रही थी। चारों तरफ इसी कहानी के चर्चे हो रहे थे।हमारी ही तरह सभी लोग दूर से ही उन पुजारी जी के दर्शन कर रहे थे। 
भारत देश के कोने- कोने में ऐसी अनेकों अचरज भरी कहानियां मौजूद है, जिनके बारे में हमने कभी नहीं सुना। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है, कि इन सभी कहानियों की जड़ में अगर हम देखेंगे, तो हमें महसूस होगा ईश्वर के प्रति हमारा विश्वास जितना अटूट और जितना दृढ़ होगा, हमारी शक्तियों को, हमारे आत्मविश्वास को, उतना ही बल मिलता है, और वही शक्ति हमें कुछ अलग और अद्भुत करने की प्रेरणा देती है।
यहां से 3 किलोमीटर और चलकर हम पे  गांव पर पहुंचे ,जहां हमारे टेंट लगे हुए थे ,वहां पहुंचकर हम सभी ने भोजन किया और विश्राम किया।
संध्या काल में भजन और आरती करके आज हम सभी सखियों ने मिलकर एक दूसरे के साथ कई प्रकार के नए पुराने, अनकहे किस्सों को बांटा जिसमें भगवान और भक्त के प्रेम और विश्वास की झलकियां थी।
राधे- राधे।

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

braj 84 kos padyartra day 15

8 /3/2017-गाजीपुर ,टेरकदम ,प्रेमसरोवर ,साकेत बट ,हाउ बिलाऊ
 ,नंदगाँव दर्शन ,माँट गांव ,पावन सरोवर।






कल रात को ही हमें बता दिया गया था की आज की परिक्रमा 30 किलोमीटर की है, इसीलिए आज हम भोर में जल्दी उठे और जल्दी ही अपनी नित्य क्रिया से निवृत हो राधे रानी की आरती कर यात्रा पर निकल गए।  भोर में चारों तरफ अंधेरा होता है, हम सभी के हाथ में टॉर्च थी और मोबाइल था उसी से रास्ता देखते- देखते हम आगे बढ़ते जा रहे थे।  कुछ ही देर में चारों तरफ आसमान में सूर्य देव की किरणें अपना रास्ता बनाने लगी  और देखते ही देखते पहाड़ियों में से  सूर्य देव हम सभी को देखने लगे।
आज हम गाजीपुर होते हुए सबसे पहले टेर कदम पहुंचे। जहाँ  रूप श्री रूप गोस्वामी जी का मंदिर है , यहां उनकी भजन स्थली है।कहते हैं यहां कान्हा अपनी गैया चराने आते थे, और शाम को लौटते वक्त उन गैया का नाम ले लेकर उन्हें एकत्रित करते थे ।कान्हा को सभी गायोँ  का नाम याद रहता था।वे उनसे बहुत प्रेम करते थे , जो गाय दूर चली जाती थी ,कान्हा कदम के पेड़ पर बैठकर बांसुरी से उनका नाम पुकारते थे , बांसुरी में अपना नाम  सुनकर सभी गायें  कान्हा के पास एकत्रित हो जाती थी।
हम लोग जब एक लंबी यात्रा करते थे तो कभी-कभी हमारे ग्रुप से बिखर जाते थे सभी की चाल एक जैसी नहीं होती कभी हम रुक- रुक कर इंतजार करते थे एक दूसरे का तो कभी-कभी आगे बढ़ जाते थे, क्योंकि आज का

लक्ष्य बहुत लंबा था, इसीलिए लंबी यात्रा में अक्सर हम बिना ज्यादा किसी का इंतजार किए आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे  थे इसी बीच कभी-कभी ऐसा होता था कि हम सखियों को  एक दूसरे  गुस्सा भी आ जाता था, जब कोई हमारा इंतजार नहीं करता था।  एक अनजान जगह अनजान सफर जहां किसी को भी नहीं जानते और फिर ऊपर से इतना लंबा रास्ता तो मन में एक डर सा भी लगने लग जाता था।
धीरे-धीरे हम सभी अकेले चलते चलते प्रेम सरोवर पर पहुंच गए । प्रेम सरोवर पर बूढ़ी लीला का आयोजन होता है, भाद्रपद मास में एकादशी पर यहां भगवान का नौका विहार होता है, जिसमें राधे कृष्ण, प्रिय और प्रियतमा एक साथ प्रेम सरोवर में नौका विहार करके सभी को दर्शन देते हैं, यहां बहुत बड़ी संख्या में लोग इस नौका विहार के दर्शन करने आते हैं, इसीलिए इसका नाम प्रेम सरोवर है। प्रेम सरोवर के दर्शन कर, मैं आगे की यात्रा के लिए चल ही रही थी आज यात्रा में मन नहीं लग रहा था, क्योंकि कोई बहुत आगे था और तो कोई बहुत पीछे अकेले- अकेले सफर बहुत मुश्किल हो जाता है, मैं यही सोच रही थी कि कितनी अजीब बात है, हम सभी अलग- अलग जगह से अलग- अलग गांव से अलग-अलग क्षेत्र से आए हुए हैं, लेकिन यहां आकर एक परिवार की भांति हो गए हैं, और जब भी हम इस प्रकार बिखर जाते हैं तो एक दूसरे के प्रति कभी गुस्सा आक्रोश जैसी भावनाएं भी आ जाती है, जबकि हम जानते हैं कि यह  हमारा परिवार  नहीं है, पर फिर भी हमारी उम्मीदे,  हमारी आशाएं ,आपस में जुड़ जाती है। हम एक दूसरे पर अपना पूरा हक जताने लग जाते हैं।
रास्ते में प्रेम बिहारी जी के दर्शन किये, वहा से आगे हम साकेत वन पहुँच गए ,जहाँ हमने साकेत माता के दर्शन किये। यहाँ से हम कान्हा के गाँव के लिए निकल पड़े। नन्दगांव , जहाँ कान्हा और उनकी माता के प्रेम के कई किस्से जीवंत है। आपको ये जान कर बहुत आश्चर्य होगा की-   मैं ही नहीं किसी को भी यहां आकर किसी को भी  परिवार की बच्चों की पति की या घर की कोई याद नहीं आती, हम यहां इतने बेफिक्र होकर चल रहे हैं मानो लगता है कि बस यही हमारा जीवन है ,और हमें ताउम्र यही करना है एक पल को भी ख्याल नहीं आता कि घर में हमारी चीजों का हमारे सामान का हमारे परिवार का अभी क्या हाल हो रहा होगा। हम जब भी कहीं बाहर घूमने जाते हैं, एक हफ्ता या दो  हफ्ते में हमारा मन भर जाता है और हमें हमारे घर की याद सताने लगती है लेकिन आश्चर्य की बात थी कि यहां मुझे 15 दिन होने वाले हैं लेकिन अभी भी ऐसा लग रहा है, जैसे यह यात्रा निरंतर चलती रहे और हम भी इसी में अपना जीवन निरंतर चलाते रहें
 नंदगाँव में हम हाउ बिलाव पहुंच गए, हाउ बुलाओ वह जगह है जहां माता यशोदा अपने दोनों पुत्रों को श्री कृष्ण और बलराम जी को डराने के लिए हाऊ बिलाव का नाम लेती थी।  वह जब भी बहुत ज्यादा उन्हें परेशान करते

थे या उनकी बात नहीं मानते थे, तो वह उन्हें यहां डराने के लिए लेकर आती थी, और कहती थी अभी हाउ बिलाऊ  आ जाएगा। कान्हा मैया को बहुत कहते थे, कि मुझे एक बार हाऊ बिलाउ से मिलना है पर मैया यशोदा उन्हें गोद में उठाकर  चल देती । पहले यहां पर हाउ बिलाऊ  की मूर्ति भी थी, जिसमें शेर जैसी दो बड़ी- बड़ी बिल्लियां थी, परंतु अभी यहां पर मंदिर बहुत ही जीर्ण- शीर्ण  अवस्था में हो चुका है, इसलिए हम उनके दर्शन नहीं कर पाए।  नंद गांव में कान्हा  अपने माता- पिता के साथ अपने पूरे परिवार के साथ रहते थे, यहां उन्होंने बचपन की  सभी लीलाओं को रचा है,जिन  बाल्यकाल की शरारतों को आज हम पढ़ कर या सुनकर इतने खुश और इतने मंत्र मुग्ध हो जाते हैं, तो सोचिए कि जिन लोगों ने इन शरारतों को इन लीलाओं को अपनी आंखों से देखा होगा उनके तो आनंद का कोई ठिकाना ही नहीं होगा, कितने भाग्यशाली होंगे वह लोग।यहाँ हमने यशोदा माता के मंदिर ,वे जहाँ माखन निकलती थी कान्हा के लिए, बिलोवना ,यशोदा कुण्ड,आदि कई प्रमुख स्थानों  के दर्शन किये।आगे चलते- चलते हमने यहाँ नन्दबाबा का मंदिर देखा ,उनकी गौशाला देखी और भगवान् नरसिंग का प्राचीन मंदिर देखा।   यहीं पर मुझे किसी ने बताया कि हमारे ही ग्रुप की एक सखी  बेबी जीजी आज रास्ते में दो बार गिर गई है, उनके पैर में मोच भी आ गई और वह बहुत पीछे चल रही है। मैंने थोड़ी देर यहां पर रुक कर उनका इंतजार किया, उस दिन हम लोगों के फोन भी चार्ज नहीं हो पा रहे थे ,इसीलिए एक दूसरे से  बातचीत नहीं हो पाई ,सभी अलग-अलग बढ़ते जा रहे थे. थोड़ी देर इंतजार करने के बाद मैं भी आगे चल पड़ी। अब हमारा पड़ाव बहुत दूर नहीं था, यहां से कुछ दूरी पर ही पावन सरोवर है , जहां माता यशोदा कान्हा को नहलाती थी। वहां आसपास और भी कई मंदिर बने हुए हैं मैंने सभी के दर्शन किए और फिर मुझे पता चला कि बेबी जीजी टैंट  पहुंच चुकी  हैं, उनके पैर में बहुत तेज मोच आई है। मुझे भी उनकी  चिंता होने लगी अब मैं जल्दी से कदम बढ़ाते- बढ़ाते अपने पड़ाव की तरफ जाने लगी , आज क्योंकि पूरे रास्ते में किसी से भी बात नहीं हो पाई थी इसीलिए थोड़ी चिन्ता थी।

कोकिलावन हमारा पड़ाव था जहाँ शनि देव ,पंचमुखी हनुमान ,गणेशजी आदि कई मंदिरों के दर्शन किये और टैंट पहुँची। सामने जब मैंने देखा तो हमारे टेंट में सभी लोग बैठे थे और बेबी जीजी को बहुत तेज गुस्सा आया हुआ था। जितना दर्द उनको अपने पैर का नहीं हो रहा था उससे ज्यादा दर्द उन्हें इस बात का था कि आज पूरे रास्ते भर उनके साथ कोई नहीं था वह गुस्से में कह रही थी कि जब साथ रखना ही नहीं है जब आगे -आगे ही बढ़ना है तो ठीक है ,सब अकेले -अकेले ही रहेंगे । क्योंकि आज का सफर हम सभी के लिए अकेले -अकेले का ही था तो खुश तो कोई भी नहीं था लेकिन उनके पैर में मोच भी आ गई थी, इसीलिए उनको और भी ज्यादा दर्द हो रहा था।  हम सभी ने अंदर ही अंदर  महसूस किया कि आज हम सभी की  भावनाएं नाराजगी बन कर सामने आ रही थी प्रेम यही तो होता है, जहां प्रेम होता है वहां गुस्सा भी होता है और नाराजगी भी, क्योंकि हमें एक दूसरे से कई उम्मीदें और कई आशाएं बन जाती है। हम सभी ने मिलकर उन को शांत किया और यह निश्चित किया कि अब से हम अकेले-अकेले नहीं बढ़ेंगे दो या तीन -तीन के ग्रुप में चला करेंगे। जैसा कि हम लोग हर रोज किया करते थे। एक परिवार की अहमियत यही होती है, जहां हम लोग एक -दूसरे का सहारा बनते हुए एक- दूसरे का साथ निभाते हुए, पूरी जिंदगी आराम से काट लेते है।  आज बेबी जीजी को देख कर यही महसूस हो रहा था कि हम सब भी बिल्कुल एक परिवार की जैसे जुड़ गए थे, अभी तक हम लोगों में गुस्से वाला रूप नहीं आया था आज उसने भी अपनी कमी पूरी कर दी सही मायने में आज हम एक पूरे परिवार की तरह बंध  चुके थे।
सभी ने प्रसाद ग्रहण कर आराम किया । शाम होने वाली थी, हम सभी अपना गुस्सा भूलकर राधे रानी की आरती

करने चले गए और आज हमने टेंट में ही बैठ कर भजन किए क्योंकि आज बेबी जीजी बाहर नहीं बैठ सकती थी।
 आज हमारा पड़ाव कोकिलावन में था जो की बहुत ही रमणीय स्थान है रात को चारों तरफ से जंगल से जानवरों की आवाजें आ रही थी हम सभी अपना- अपना सामान व्यवस्थित कर पर एक दूसरे की उनके कार्यों में सहायता करने लगे। समय कभी भी एक जैसा नहीं होता जो सुबह था वह दोपहर में नहीं था और जो दोपहर में था  वह शाम तक नहीं रहा। सभी का गुस्सा गुस्सा ठंडी ठंडी रात में छू हो गया फिर से हंसी ठहाकों की आवाजें शांत जंगल में गूंजने लगी।  पूरे दिन का तनाव  रात में गुम हो चुका था।   रात ने  हमारे दिल दिमाग और शरीर को  ठंडक देते हुए अपनी शीतलता से बिलकुल हल्का कर दिया था। राधे राधे।






शनिवार, 22 अप्रैल 2017

braj 84 kos padyatra day 14



7/3/17-बरसाना परिक्रमा ,गहरवन ,जयपुर मंदिर, मानगढ़ 
         लठमार होली।

                                                                 



भोर में 5:00 बजे उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त हो हमने राधे रानी की आरती की , और बरसाने की परिक्रमा के लिए  श्री राधे जी के मंदिर पहुंच गए। जहां कल हमने लड्डूओं की होली खेली थी। यह मंदिर कई सीढ़ियों की ऊंचाई पर है, मंदिर के सामने जाकर महसूस होता है, कि आप बरसाने की महारानी के भव्य और विशाल महल के

सामने खड़े  हो। जहां स्वयं श्री राधे रानी जी विराजमान है,  जो इस संपूर्ण मंदिर और बरसाने को सुशोभित करती है। आज की हमारी यात्रा का रास्ता पूरा पहाड़ी के इर्द-गिर्द ही है, बरसाना भी पहाड़ी के आस-पास ही बसा हुआ है, इसीलिए यहां की छटा बहुत निराली है, श्री राधे जी  की भांति बहुत सुंदर है और यहां का रास्ता भी बहुत प्यारा है। श्री राधे के भजन गाते- गाते हम चतुर्भुज मंदिर पर पहुंचे जहां हमने चतुर्भुज भगवान के दर्शन किए उनका आशीर्वाद लिया।



वहाँ से मोर कुटी के लिए आगे बढ़े। बरसाने की पूरी यात्रा 9 किलोमीटर की थी। हरे- भरे खेत और उन खेतों के बीच में गुजरते हुए रास्ते। मुझे याद आ रहा है था  मेरे बच्चों का बचपन,  जब वह छोटे थे ,तो अपनी ड्राइंग कॉपी में ऐसे ही सीनरी बनाया करते थे। जिसमें खेत छोटे -छोटे रास्ते छोटी-छोटी झोपड़ियां  पेड़ और पहाड़ सब कुछ होता था । और मुझे वही सब चीजें यहां दिख रही थी । चलते -चलते ही रास्ते में अचानक से आवाज आने लगी, हम में से ही कुछ लोग जोर- जोर से चिल्लाने लगे देखो, इतने सारे मोर, एक साथ इतने सारे मोर , मैंने भी देखा सचमुच बहुत आश्चर्य की बात। थी

 मैंने आज तक कभी एक साथ इतने सारे मोर को नृत्य करते हुए घूमते हुए नहीं देखा था ।बहुत सुंदर -सुंदर मोर थे, जो खेत-खलिहानों में बड़े-बड़े पंख लिए घूम रहे थे, तब पता चला हम मोर कुटी पहुंच चुके है।इस जगह का नाम मोर कुटी इसलिए पड़ा क्योंकि यह माना जाता है की, राधे रानी यहां  मोर को नृत्य सिखाती  थी।  सभी मोर उनके साथ नृत्य करते थे , उस बीच कभी- कभी कान्हा  भी मोर बन कर वहां राधे रानी से  नृत्य सीखने आते थे,  और जब वह गलत करते थे तो राधे रानी उन्हें  डांट लगाती थी,  और यही बात कान्हा  को बहुत अच्छी लगती थी, इसीलिए मोर कुटी में बहुत सारे मोर है।

 यह सभी मोर आज हमें बोलकर बता तो नहीं सकते , परंतु कहते हैं कि यह सभी साक्ष्य है , राधे रानी और कान्हा के अनुपम प्रेम की  लीलाओं के  । मैं रुक कर उन मोरों की फोटो खींचना चाह रही थी, पर जब भी मैं फोटो खींचती ,वह नाचना बंद कर देते, और फिर जैसे मैं फोटो लेना बंद करती, वह नाचना शुरू कर देते ,जैसे वह कह रहे थे कि आपको देखना है तो आप हमें देखो ,लेकिन हमें कैद मत करो। चारों तरफ से आसमान में पीहू -पीहू की आवाज आ रही थी ,मोर दूर-दूर से पीहू -पीहू पीहू -पीहू कर रहे थे ,ऐसा लग रहा था जैसे कह रहे थे, कि आओ हमारे साथ  हमारे इस नृत्य में इस संगीत में खो जाओ और महसूस करो यहां की हवाओं में बहते हुए राधा और कृष्ण के प्रेम को। पता नहीं ,कौन सा संगीत सुना रहे थे, जो हमारे कानों को, हमारे मन को, और हमारे दिल -दिमाग को बहुत सुकून दे रहा था।लग ही नहीं रहा था कि हमें यहां से आगे जाना है। यात्रा का नाम तो निरंतरता है ।हम भी अपने कदमों को गति देते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। मोर कुटी की दुनिया ने  हमारे मन को आनंद और उल्लास से भर दिया था।  हमारा मन चंचल मोर की तरह नाचने लग रहा था ।


जैसे- जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे , हमारा मन चंचलता से स्थिरता की तरफ  बह रहा था।हमारे इस मंडल के जो संत श्री लक्ष्मणदास जी थे। जिन्होंने इस यात्रा को प्रारंभ किया था। उनके शिष्य संत श्री लाडली जी की समाधि इसी गहरबन में है, हम वहीं जा रहे थे।


समाधि पर पहुंचते ही हम सभी के उछलते-कूदते मन को जैसे विराम मिल गया था ,संगमरमर से बनी यह समाधि इस पूरे गहरवन में एक ऐसा शांति का प्रकाश बन कर चमक रही थी, जिसने ना जाने कितने हजारों लोगों को अध्यात्म का रास्ता दिखाया है, इस ब्रजधाम की पदयात्रा का रास्ता दिखाया है। जब आप किसी सिद्ध पुरुष की समाधि स्थल पर पहुंचते हो तो वहां कि हवा, वहां का वातावरण उन सभी में एक शांति मिलती है जो हमारे मन के विकारों को,हमारे मन के सवालों को ,और  हमारी तृष्णाओं को कुछ ही पल के लिए सही बिल्कुल विराम कर देती है। हमने उनके प्रतीक चरणों को छूकर प्रणाम किया और इस यात्रा के लिए आशीर्वाद लेते हुए आगे बढ़े।


बरसाना के चारों तरफ या यूं कहूं कि यहां की रज -रज में यहां के कण कण में राधा और कृष्ण की प्रेम लीलाओं के कई साक्ष और कई दर्शन  हैं गहरबन में  कई सरोवर , कई उपवन है जहां राधा और कृष्ण विहार करते थे ,खेलते थे ,कई तरह- तरह की लीलाएं करते थे।  आज हम यात्रा कर रहे थे ,उस आत्मिक प्रेम की जिसका इस सृष्टि में सर्वोच्च स्थान है, जैसे आत्मा दिखाई नहीं देती लेकिन होती है ठीक उसी प्रकार हम यहां आज  राधे कृष्णा को तो नहीं देख पा रहे थे,

लेकिन इस संपूर्ण वातावरण में यहां की प्रकृति में रचा- बसा उनका प्रेम दिख रहा था, हमारी आत्मा उसे महसूस कर रही थी।


बृज कुमारी और नंदलाल की लीलाओं की बातें सुनते -सुनते उनकी प्रेम लीलाओं की कल्पना करते -करते हम मानगढ़ पहुंच गए हमारे सामने था पहाड़ी पर एक विशाल महल 225 सीढ़ियां है और जहां राधे रानी कान्हा के साथ विराजमान है, यहां की कहानी  बहुत मजेदार है माना जाता है कि एक बार यहां राधे रानी  कान्हा से मिलने के लिए उनका इंतजार कर रही थी, परंतु कान्हा  को आने में  देर हो गई,  तो राधे रानी कान्हा से रूठ गई थी । मान का अर्थ होता है रूठना। तो जब राधे रानी कान्हा से रूठ गई तो महल की तरफ जाने लगी ,वह एक-एक सीढ़ियां चढ़ती जा रही थी और कान्हा  उन्हें मनाते जा रहे थे । कान्हा ने कई लीलाएं करी, उनको मनाने की परंतु राधेरानी नहीं मानी, और राधे रानी चलते-चलते ऊपर मानगढ़ में अपने महल में पहुंच गई, कान्हा ने सभी सखियों को कहा, की वह राधे रानी को मनाए। सखियों के बहुत मनाने पर भी राधे नहीं मानी। कान्हा स्वयं में कुशल और निपुण थे ,उन्होंने अपनी लीलाओं से राधा को मना ही लिया और इसीलिए इस जगह का नाम मानगढ़ पड़ा।



मानगढ़ में हमने राधे रानी के गुलाल के श्रंगार देखें। यहां ब्रज धाम के सभी बड़े मंदिरों में अमावस्या के बाद एकम से 15 20 दिनों तक रंगों का त्योहार चलता रहता है ,रोज होली के गीत गाए जाते हैं, गुलाल से होली खेली जाती है और भजनों में नाचते गाते आनंद उठाया जाता है। हम सभी ने यहां भजन गाकर नृत्य करके राधे रानी के साथ रास रचाया।यहाँ से हमने जयपुर मंदिर के दर्शन करने के लिए यात्रा प्रारम्भ की और वहाँ के भव्य मंदिर के दर्शन किये। ये मंदिर जयपुर के राजा जी द्वारा बनाया गया था ,आज भी यहाँ का संचालन राजस्थान सरकार के द्वारा ही होता है। 


यहां से हम सीधे राधा रानी के मंदिर पहुंचे, जहां से हमने परिक्रमा उठाई थी। अब हम अपने पड़ाव पर आकर प्रसाद ग्रहण कर थोड़ी देर विश्राम किया, आज हमें जल्दी थी लठमार होली देखने की, थोड़ी सी देर विश्राम कर के हम उस चौक में गए, जहां पर इस होली का आयोजन होना था।  वहां बहुत भीड़ लगी थी, हम लोग भी अपनी जगह रोक- रोक कर खड़े हो गए। मैं अपने जीवन में यह होली पहली बार देखने वाली थी, मैंने इसके विषय में बहुत सुना था, यहां इस होली के 1 दिन पहले बरसाने से नंदगांव में थालियों में गुलाल सजा कर निमंत्रण भेजा जाता है, होली खेलने के लिए ।तो दूसरे दिन नंदगांव से ग्वाले अपने साथ ढाल लेकर बरसाने के चौक में आते हैं।


हमने देखा चारों तरफ गुलाल उड़ने लगी ,ढोल बजने लगे, और ढोल के साथ नंद गांव के ग्वाले अपने-अपने हाथों में ढाल ले कर चौक में पहुंच गए।  तो यहां की गोपियां भी कम नहीं थी ,अपनी-अपनी लाठियों के साथ लहंगा चुन्नी पहनकर सजी-धजी उन ग्वालो की पिटाई करने यहां पहुंच गई। चारों तरफ से होली के गीत गूंजने लगे, ढोल की थाप बज रही थी और साथ में चल रहा था जोर-जोर से लाठियों का संगीत ,यहां हर गोपी को राधा स्वरुप देखा जाता है, और हर ग्वाला को कान्हा के जैसे, होली का खेल होने के बाद हम सभी कान्हा  और राधा से आशीर्वाद लेते हैं, और साथ में उन्हें भेंट देते है। 


राधे और कृष्ण के प्रेम का जादू ही है जो हजारों साल बीत जाने पर भी आज तक जीवंत है इस संसार में। एक ऐसा प्रेम जो शरीर का नहीं आत्मा का है।  राधे उम्र में कान्हा से बड़ी है।  मात्र 7 साल के कान्हा ने अपनी प्रेमिका को देखा, तो कभी उनसे दूर न हो पाए। 16 वर्ष की उम्र के बाद कान्हा कभी राधा से नहीं मिले।वे शरीर से अलग प्रतीत हो रहे थे  लेकिन उन दोनों की आत्मा एक ही थी ,जाते- जाते कान्हा ने राधा को अपनी बाँसुरी दे दी थी, और फिर कभी नहीं बजायी। यही वो प्रेम है की कान्हा की कई पत्नियाँ ,रानियाँ होते हुए भी सर्वोच्च स्थान राधा का ही है जो हमें सभी मंदिरों में दिखाई देता है।आज मैं अपने टैंट में अपनी कम्बल में घुस कर इस दिव्य प्रेम की गहराई में डूब रही थी डूबते- डूबते कब नींद आ गयी पता भी नहीं चला।  राधे राधे। 





गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

braj 84 kos padyatra day 13

5/3/17-नागाजी की कदम खण्डी ,सुदैवीजी के दर्शन, ऊंचे गाँव ,ललिता जी के दर्शन,देहकुंड।










रोज सुबह जब हम उठते थे, तो अपने बिस्तर समेट कर अपनी नित्य क्रिया से निवृत होकर, मैं या सरोज हम दोनों में से कोई भी हमारे पुरे ग्रुप के लिए चाय लेकर आते थे, सभी अपना- अपना सामान जमा कर ,त्रिपाल पर रख रहे होते थे।  चाय पीकर हम भी, अपने सामान को व्यवस्थित कर त्रिपाल  पर रख कर राधे रानी की आरती के लिए उनके मंदिर के सामने पहुंच जाते थे।
यात्रा प्रारंभ करते हुए, हम सब से पहले आज कदम खंड पहुंचे। कदम खंड जहां पर एक नागा साधु ने बहुत ही कठिन तपस्या की थी। वह भगवान की तपस्या में इतने लीन हो गए थे, कि उन्हें खुद की कोई सुध- बुध नहीं थी। वह राधा रानी और भगवान श्री कृष्ण के दर्शन करना चाहते थे,यह उनका हठ था। इस तपस्या के दौरान उनके बाल बहुत ज्यादा उलझ गए थे, और उनके बाल बहुत कठोर हो गए थे ।जब कोई भी उन्हें कहता अपने बालों का ध्यान रखने के लिए तो वह कहते कि मेरे बाल मेरे कान्हा और राधे रानी स्वयं आकर सुलझाएंगे । वह कई वर्षों तक निरंतर तपस्या करते रहे, और अपने हठ पर कायम रहे। उनकी इस साधना से प्रसन्न होकर भगवान श्री कृष्ण और राधेरानी स्वयं प्रकट हुए दोनों ने मिलकर उन नागा साधु बाबा के बाल सुलझाएं। उनके बाल इतने कठोर थे कि भगवान श्री कृष्ण और राधे रानी के हाथों में खून आने लगे। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने अपने भक्त का हट पूरा किया। अब यहां के मंदिर का जीर्णोद्धार हो चुका है, प्राचीन मंदिर के समीप अभी भी जो पेड़ है उन सभी पेड़ों के  पत्ते ,टहनियाँ बालों की तरह उलझे हुए  है, मान्यता है कि ये सभी पेड़ साधु बाबा के बालों को ही दर्शातें हैं।


भक्त और भगवान् की अनेकों कहानियाँ हमारे इतिहास में पौराणिक कथाओं में प्रचलित है, पर जब उन कथाओं के साक्ष्य भी देखने को मिलते हैं तो विश्वास और भी प्रबल हो जाता है। मेरे कदम सुदेवी जी के दर्शन की यात्रा पर बढ़ रहे थे,परन्तु मन अभी भी एक भक्त के हठ और उस जिद को पूरा करने वाले भगवान् पर ही अटका हुआ था। ऐसी कोनसी शक्ति होती थी, जो एक सधारण इंसान को भक्ति के लिए प्रेरित करती थी ,कई वर्षों तक भक्ति में लीन  रखती थी, क्या उन्हें भूख  ,प्यास ,गर्मी ,सर्दी कुछ भी परेशान नहीं करता था। मुझे तो लगता है वे हमारी तरह साधारण नहीं होते थे। वे तो कोई योग की अवस्था को प्राप्त किये हुए योगी ही होते थे। जिसे समझना मेरे बस की बात नहीं है। सरोज और मुझे  एक ठेले पर संतरे दिखे ,बहुत देर से भूख भी लग रही थी और प्यास भी हमने संतरे ख़रीदे और खाते -खाते  आगे बढे।

                                                 
राधे रानी की सबसे प्रिय 8 सखियाँ हैं ,सुदेवी जी राधे रानी की प्रिय सखी है ,ये राधे रानी के श्रृंगार करती ,फूलों की बागवानी करती ,और राधा कृष्ण का हर पल ध्यान रखने वाली प्रिय सखियों में से  एक है,इनका मंदिर सुनेरा गांव में है। सुदेवी जी के दर्शन  कर हम उचगांव के लिए निकले जहाँ राधे और कृष्णा की सबसे प्रिय सखी ललिता जी का मंदिर है।

यहाँ माना  जाता है की ललिता देवी से कान्हा जी का विवाह हुआ है इस मंदिर में सभी सुहाग की चीजें चढ़ाई जाती है, और साथ में सभी मेहँदी लगाती है। हम सभी ने यहाँ अपने पति की लम्बी आयु की कामना कर, अपने हाथों में मेहँदी लगायी। ललिता देवी सभी सखियों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखती थी, वे कान्हा और राधा के मिलने के सभी इंतजाम करती थी।वे बहुत जल्दी  नाराज भी हो जाती थी इन्हे बहुत जल्दी गुस्सा आता था। ये श्री कृष्ण से बहुत प्रेम करती थी। ये राधे और कान्हा दोनों की ही प्रिय थी ,इसीलिए सभी सखियों में इनका नाम पहले आता है। ये श्री राधे रानी से उम्र में बड़ी थी।



                                                        
कृष्ण अवतार स्वयं में एक पूर्ण अवतार है। कान्हा का आकर्षण इतना प्रगाढ़ है की कोई भी उससे बच नहीं सकता। आज मै कान्हा के प्रेम  रूप की यात्रा कर रही थी। कहीं भक्त के प्रति तो कही गोपियों के, सखियों के प्रति।गोपियों का प्रेम कान्हा के प्रति इतना निष्काम ,निश्छल और स्वार्थ रहित है, की आज के युग में तो हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। राधा कृष्ण तो एक ही आत्मा है, उन्हें कभी अलग नहीं  देखा जा सकता। गोपियाँ और सखियाँ भी सभी कान्हा  के रंग में अपनी आत्मा को  रंग चुकी थी, बस उनके शरीर ही उनके परिवार और इस संसार के प्रति अपना कर्तव्य निर्वाह कर रहे थे। ये कैसा प्रेम है , जिसे सभी एक दुसरे के साथ बाँट कर भी बहुत खुश होते है,यही है कृष्ण दर्शन कृष्ण का प्रेम।
सर पर तेज धुप लग रही थी ,हम उचगांव ,ललिता देवी के दर्शन कर आगे बढ़ रहे थे। ४-५ किलोमीटर चलने के बाद हवाएँ कुछ ठंडी होने लगी सामने देहकुंड के दर्शन हो रहे थे।माना जाता है की , यहाँ श्री राधा रानी ने भगवान् श्री कृष्ण का सोने से तुला दान किया था। उनकी देह के बराबर सोना एक गरीब को दिया था, अपनी पुत्री के विवाह के लिए। इसलिए यहाँ जो भी स्नान करता है, वो अपनी क्षमता के अनुरूप गुप्त दान करता है। हम सभी ने यहाँ स्नानादि कर अपनी- अपनी श्रद्धा से गुप्तदान किया। 

   
देह कुंड से हमने सूर्य कुंड ,प्रिय कुंड सभी के दर्शन किये ,और खेतों के रस्ते आगे बढ़ते गए। तेज धुप में आपके आस- पास लहराते हुए खेत आपके शरीर और आँखों दोनों को ठंडक पहुंचाते रहते है।आज का हमारा पड़ाव बरसाने में घुसते ही वाल्मीकि आश्रम पर है, यहाँ पहुंच कर हमने प्रसाद ग्रहण कर विश्राम किया। करीब 4 बजे हम यहाँ पास के राधे रानी के मंदिर में दर्शन करने गए। 
 गुलाबी रंग से सराबोर मंदिर में  चारों तरफ गुलाल ही गुलाल बिखरा हुआ था। मंदिर में गुलाबों से सजी राधे रानी के दर्शन कर हम मंदिर की परिक्रमा करने लगे। होली के दिनों में बरसाने में धूम मची होती है। पूरा मंदिर गुलाल से नहाया हुआ था, यहाँ लडुओं, फूलों और गुलाल से होली खेली जा रही थी। यहाँ की हवाओँ में उड़ता गुलाल हम सभी के मन को उल्लास से भर रहा था। हम सभी इस उत्सव में घुल गए और एक दुसरे के साथ प्रेम से रंग भरी होली खेल रहे थे।




सभी के चेहरे ख़ुशी के रंगो से खिले हुए थे। मन में उत्साह और आँखों में चमक थी। ये चमक थी  इस अनुपम यात्रा की। हँसते - खेलते दिन  का पहर बीत गया और हम अपने पड़ाव पर लौट आये। राधे रानी की आरती कर प्रसाद ग्रहण किया और भजन करने बैठ गए। कल हमें बरसाने की यात्रा में होली का एक और  रंग भी देखने को मिलेगा जिसे देखने यहाँ दूर दूर से लोग आते हैं लठमार होली।रात्रि विश्राम के लिए सभी अपने टैंट में पहुँच गए और कल सुबह की तैयारी करके सोने लगे।  कान्हा के भक्त की ,कान्हा के प्रेम की ,आज के आनंद की जय हो। राधे राधे।