शनिवार, 29 अप्रैल 2017

braj 84 kos padyartra day 15

8 /3/2017-गाजीपुर ,टेरकदम ,प्रेमसरोवर ,साकेत बट ,हाउ बिलाऊ
 ,नंदगाँव दर्शन ,माँट गांव ,पावन सरोवर।






कल रात को ही हमें बता दिया गया था की आज की परिक्रमा 30 किलोमीटर की है, इसीलिए आज हम भोर में जल्दी उठे और जल्दी ही अपनी नित्य क्रिया से निवृत हो राधे रानी की आरती कर यात्रा पर निकल गए।  भोर में चारों तरफ अंधेरा होता है, हम सभी के हाथ में टॉर्च थी और मोबाइल था उसी से रास्ता देखते- देखते हम आगे बढ़ते जा रहे थे।  कुछ ही देर में चारों तरफ आसमान में सूर्य देव की किरणें अपना रास्ता बनाने लगी  और देखते ही देखते पहाड़ियों में से  सूर्य देव हम सभी को देखने लगे।
आज हम गाजीपुर होते हुए सबसे पहले टेर कदम पहुंचे। जहाँ  रूप श्री रूप गोस्वामी जी का मंदिर है , यहां उनकी भजन स्थली है।कहते हैं यहां कान्हा अपनी गैया चराने आते थे, और शाम को लौटते वक्त उन गैया का नाम ले लेकर उन्हें एकत्रित करते थे ।कान्हा को सभी गायोँ  का नाम याद रहता था।वे उनसे बहुत प्रेम करते थे , जो गाय दूर चली जाती थी ,कान्हा कदम के पेड़ पर बैठकर बांसुरी से उनका नाम पुकारते थे , बांसुरी में अपना नाम  सुनकर सभी गायें  कान्हा के पास एकत्रित हो जाती थी।
हम लोग जब एक लंबी यात्रा करते थे तो कभी-कभी हमारे ग्रुप से बिखर जाते थे सभी की चाल एक जैसी नहीं होती कभी हम रुक- रुक कर इंतजार करते थे एक दूसरे का तो कभी-कभी आगे बढ़ जाते थे, क्योंकि आज का

लक्ष्य बहुत लंबा था, इसीलिए लंबी यात्रा में अक्सर हम बिना ज्यादा किसी का इंतजार किए आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे  थे इसी बीच कभी-कभी ऐसा होता था कि हम सखियों को  एक दूसरे  गुस्सा भी आ जाता था, जब कोई हमारा इंतजार नहीं करता था।  एक अनजान जगह अनजान सफर जहां किसी को भी नहीं जानते और फिर ऊपर से इतना लंबा रास्ता तो मन में एक डर सा भी लगने लग जाता था।
धीरे-धीरे हम सभी अकेले चलते चलते प्रेम सरोवर पर पहुंच गए । प्रेम सरोवर पर बूढ़ी लीला का आयोजन होता है, भाद्रपद मास में एकादशी पर यहां भगवान का नौका विहार होता है, जिसमें राधे कृष्ण, प्रिय और प्रियतमा एक साथ प्रेम सरोवर में नौका विहार करके सभी को दर्शन देते हैं, यहां बहुत बड़ी संख्या में लोग इस नौका विहार के दर्शन करने आते हैं, इसीलिए इसका नाम प्रेम सरोवर है। प्रेम सरोवर के दर्शन कर, मैं आगे की यात्रा के लिए चल ही रही थी आज यात्रा में मन नहीं लग रहा था, क्योंकि कोई बहुत आगे था और तो कोई बहुत पीछे अकेले- अकेले सफर बहुत मुश्किल हो जाता है, मैं यही सोच रही थी कि कितनी अजीब बात है, हम सभी अलग- अलग जगह से अलग- अलग गांव से अलग-अलग क्षेत्र से आए हुए हैं, लेकिन यहां आकर एक परिवार की भांति हो गए हैं, और जब भी हम इस प्रकार बिखर जाते हैं तो एक दूसरे के प्रति कभी गुस्सा आक्रोश जैसी भावनाएं भी आ जाती है, जबकि हम जानते हैं कि यह  हमारा परिवार  नहीं है, पर फिर भी हमारी उम्मीदे,  हमारी आशाएं ,आपस में जुड़ जाती है। हम एक दूसरे पर अपना पूरा हक जताने लग जाते हैं।
रास्ते में प्रेम बिहारी जी के दर्शन किये, वहा से आगे हम साकेत वन पहुँच गए ,जहाँ हमने साकेत माता के दर्शन किये। यहाँ से हम कान्हा के गाँव के लिए निकल पड़े। नन्दगांव , जहाँ कान्हा और उनकी माता के प्रेम के कई किस्से जीवंत है। आपको ये जान कर बहुत आश्चर्य होगा की-   मैं ही नहीं किसी को भी यहां आकर किसी को भी  परिवार की बच्चों की पति की या घर की कोई याद नहीं आती, हम यहां इतने बेफिक्र होकर चल रहे हैं मानो लगता है कि बस यही हमारा जीवन है ,और हमें ताउम्र यही करना है एक पल को भी ख्याल नहीं आता कि घर में हमारी चीजों का हमारे सामान का हमारे परिवार का अभी क्या हाल हो रहा होगा। हम जब भी कहीं बाहर घूमने जाते हैं, एक हफ्ता या दो  हफ्ते में हमारा मन भर जाता है और हमें हमारे घर की याद सताने लगती है लेकिन आश्चर्य की बात थी कि यहां मुझे 15 दिन होने वाले हैं लेकिन अभी भी ऐसा लग रहा है, जैसे यह यात्रा निरंतर चलती रहे और हम भी इसी में अपना जीवन निरंतर चलाते रहें
 नंदगाँव में हम हाउ बिलाव पहुंच गए, हाउ बुलाओ वह जगह है जहां माता यशोदा अपने दोनों पुत्रों को श्री कृष्ण और बलराम जी को डराने के लिए हाऊ बिलाव का नाम लेती थी।  वह जब भी बहुत ज्यादा उन्हें परेशान करते

थे या उनकी बात नहीं मानते थे, तो वह उन्हें यहां डराने के लिए लेकर आती थी, और कहती थी अभी हाउ बिलाऊ  आ जाएगा। कान्हा मैया को बहुत कहते थे, कि मुझे एक बार हाऊ बिलाउ से मिलना है पर मैया यशोदा उन्हें गोद में उठाकर  चल देती । पहले यहां पर हाउ बिलाऊ  की मूर्ति भी थी, जिसमें शेर जैसी दो बड़ी- बड़ी बिल्लियां थी, परंतु अभी यहां पर मंदिर बहुत ही जीर्ण- शीर्ण  अवस्था में हो चुका है, इसलिए हम उनके दर्शन नहीं कर पाए।  नंद गांव में कान्हा  अपने माता- पिता के साथ अपने पूरे परिवार के साथ रहते थे, यहां उन्होंने बचपन की  सभी लीलाओं को रचा है,जिन  बाल्यकाल की शरारतों को आज हम पढ़ कर या सुनकर इतने खुश और इतने मंत्र मुग्ध हो जाते हैं, तो सोचिए कि जिन लोगों ने इन शरारतों को इन लीलाओं को अपनी आंखों से देखा होगा उनके तो आनंद का कोई ठिकाना ही नहीं होगा, कितने भाग्यशाली होंगे वह लोग।यहाँ हमने यशोदा माता के मंदिर ,वे जहाँ माखन निकलती थी कान्हा के लिए, बिलोवना ,यशोदा कुण्ड,आदि कई प्रमुख स्थानों  के दर्शन किये।आगे चलते- चलते हमने यहाँ नन्दबाबा का मंदिर देखा ,उनकी गौशाला देखी और भगवान् नरसिंग का प्राचीन मंदिर देखा।   यहीं पर मुझे किसी ने बताया कि हमारे ही ग्रुप की एक सखी  बेबी जीजी आज रास्ते में दो बार गिर गई है, उनके पैर में मोच भी आ गई और वह बहुत पीछे चल रही है। मैंने थोड़ी देर यहां पर रुक कर उनका इंतजार किया, उस दिन हम लोगों के फोन भी चार्ज नहीं हो पा रहे थे ,इसीलिए एक दूसरे से  बातचीत नहीं हो पाई ,सभी अलग-अलग बढ़ते जा रहे थे. थोड़ी देर इंतजार करने के बाद मैं भी आगे चल पड़ी। अब हमारा पड़ाव बहुत दूर नहीं था, यहां से कुछ दूरी पर ही पावन सरोवर है , जहां माता यशोदा कान्हा को नहलाती थी। वहां आसपास और भी कई मंदिर बने हुए हैं मैंने सभी के दर्शन किए और फिर मुझे पता चला कि बेबी जीजी टैंट  पहुंच चुकी  हैं, उनके पैर में बहुत तेज मोच आई है। मुझे भी उनकी  चिंता होने लगी अब मैं जल्दी से कदम बढ़ाते- बढ़ाते अपने पड़ाव की तरफ जाने लगी , आज क्योंकि पूरे रास्ते में किसी से भी बात नहीं हो पाई थी इसीलिए थोड़ी चिन्ता थी।

कोकिलावन हमारा पड़ाव था जहाँ शनि देव ,पंचमुखी हनुमान ,गणेशजी आदि कई मंदिरों के दर्शन किये और टैंट पहुँची। सामने जब मैंने देखा तो हमारे टेंट में सभी लोग बैठे थे और बेबी जीजी को बहुत तेज गुस्सा आया हुआ था। जितना दर्द उनको अपने पैर का नहीं हो रहा था उससे ज्यादा दर्द उन्हें इस बात का था कि आज पूरे रास्ते भर उनके साथ कोई नहीं था वह गुस्से में कह रही थी कि जब साथ रखना ही नहीं है जब आगे -आगे ही बढ़ना है तो ठीक है ,सब अकेले -अकेले ही रहेंगे । क्योंकि आज का सफर हम सभी के लिए अकेले -अकेले का ही था तो खुश तो कोई भी नहीं था लेकिन उनके पैर में मोच भी आ गई थी, इसीलिए उनको और भी ज्यादा दर्द हो रहा था।  हम सभी ने अंदर ही अंदर  महसूस किया कि आज हम सभी की  भावनाएं नाराजगी बन कर सामने आ रही थी प्रेम यही तो होता है, जहां प्रेम होता है वहां गुस्सा भी होता है और नाराजगी भी, क्योंकि हमें एक दूसरे से कई उम्मीदें और कई आशाएं बन जाती है। हम सभी ने मिलकर उन को शांत किया और यह निश्चित किया कि अब से हम अकेले-अकेले नहीं बढ़ेंगे दो या तीन -तीन के ग्रुप में चला करेंगे। जैसा कि हम लोग हर रोज किया करते थे। एक परिवार की अहमियत यही होती है, जहां हम लोग एक -दूसरे का सहारा बनते हुए एक- दूसरे का साथ निभाते हुए, पूरी जिंदगी आराम से काट लेते है।  आज बेबी जीजी को देख कर यही महसूस हो रहा था कि हम सब भी बिल्कुल एक परिवार की जैसे जुड़ गए थे, अभी तक हम लोगों में गुस्से वाला रूप नहीं आया था आज उसने भी अपनी कमी पूरी कर दी सही मायने में आज हम एक पूरे परिवार की तरह बंध  चुके थे।
सभी ने प्रसाद ग्रहण कर आराम किया । शाम होने वाली थी, हम सभी अपना गुस्सा भूलकर राधे रानी की आरती

करने चले गए और आज हमने टेंट में ही बैठ कर भजन किए क्योंकि आज बेबी जीजी बाहर नहीं बैठ सकती थी।
 आज हमारा पड़ाव कोकिलावन में था जो की बहुत ही रमणीय स्थान है रात को चारों तरफ से जंगल से जानवरों की आवाजें आ रही थी हम सभी अपना- अपना सामान व्यवस्थित कर पर एक दूसरे की उनके कार्यों में सहायता करने लगे। समय कभी भी एक जैसा नहीं होता जो सुबह था वह दोपहर में नहीं था और जो दोपहर में था  वह शाम तक नहीं रहा। सभी का गुस्सा गुस्सा ठंडी ठंडी रात में छू हो गया फिर से हंसी ठहाकों की आवाजें शांत जंगल में गूंजने लगी।  पूरे दिन का तनाव  रात में गुम हो चुका था।   रात ने  हमारे दिल दिमाग और शरीर को  ठंडक देते हुए अपनी शीतलता से बिलकुल हल्का कर दिया था। राधे राधे।






शनिवार, 22 अप्रैल 2017

braj 84 kos padyatra day 14



7/3/17-बरसाना परिक्रमा ,गहरवन ,जयपुर मंदिर, मानगढ़ 
         लठमार होली।

                                                                 



भोर में 5:00 बजे उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त हो हमने राधे रानी की आरती की , और बरसाने की परिक्रमा के लिए  श्री राधे जी के मंदिर पहुंच गए। जहां कल हमने लड्डूओं की होली खेली थी। यह मंदिर कई सीढ़ियों की ऊंचाई पर है, मंदिर के सामने जाकर महसूस होता है, कि आप बरसाने की महारानी के भव्य और विशाल महल के

सामने खड़े  हो। जहां स्वयं श्री राधे रानी जी विराजमान है,  जो इस संपूर्ण मंदिर और बरसाने को सुशोभित करती है। आज की हमारी यात्रा का रास्ता पूरा पहाड़ी के इर्द-गिर्द ही है, बरसाना भी पहाड़ी के आस-पास ही बसा हुआ है, इसीलिए यहां की छटा बहुत निराली है, श्री राधे जी  की भांति बहुत सुंदर है और यहां का रास्ता भी बहुत प्यारा है। श्री राधे के भजन गाते- गाते हम चतुर्भुज मंदिर पर पहुंचे जहां हमने चतुर्भुज भगवान के दर्शन किए उनका आशीर्वाद लिया।



वहाँ से मोर कुटी के लिए आगे बढ़े। बरसाने की पूरी यात्रा 9 किलोमीटर की थी। हरे- भरे खेत और उन खेतों के बीच में गुजरते हुए रास्ते। मुझे याद आ रहा है था  मेरे बच्चों का बचपन,  जब वह छोटे थे ,तो अपनी ड्राइंग कॉपी में ऐसे ही सीनरी बनाया करते थे। जिसमें खेत छोटे -छोटे रास्ते छोटी-छोटी झोपड़ियां  पेड़ और पहाड़ सब कुछ होता था । और मुझे वही सब चीजें यहां दिख रही थी । चलते -चलते ही रास्ते में अचानक से आवाज आने लगी, हम में से ही कुछ लोग जोर- जोर से चिल्लाने लगे देखो, इतने सारे मोर, एक साथ इतने सारे मोर , मैंने भी देखा सचमुच बहुत आश्चर्य की बात। थी

 मैंने आज तक कभी एक साथ इतने सारे मोर को नृत्य करते हुए घूमते हुए नहीं देखा था ।बहुत सुंदर -सुंदर मोर थे, जो खेत-खलिहानों में बड़े-बड़े पंख लिए घूम रहे थे, तब पता चला हम मोर कुटी पहुंच चुके है।इस जगह का नाम मोर कुटी इसलिए पड़ा क्योंकि यह माना जाता है की, राधे रानी यहां  मोर को नृत्य सिखाती  थी।  सभी मोर उनके साथ नृत्य करते थे , उस बीच कभी- कभी कान्हा  भी मोर बन कर वहां राधे रानी से  नृत्य सीखने आते थे,  और जब वह गलत करते थे तो राधे रानी उन्हें  डांट लगाती थी,  और यही बात कान्हा  को बहुत अच्छी लगती थी, इसीलिए मोर कुटी में बहुत सारे मोर है।

 यह सभी मोर आज हमें बोलकर बता तो नहीं सकते , परंतु कहते हैं कि यह सभी साक्ष्य है , राधे रानी और कान्हा के अनुपम प्रेम की  लीलाओं के  । मैं रुक कर उन मोरों की फोटो खींचना चाह रही थी, पर जब भी मैं फोटो खींचती ,वह नाचना बंद कर देते, और फिर जैसे मैं फोटो लेना बंद करती, वह नाचना शुरू कर देते ,जैसे वह कह रहे थे कि आपको देखना है तो आप हमें देखो ,लेकिन हमें कैद मत करो। चारों तरफ से आसमान में पीहू -पीहू की आवाज आ रही थी ,मोर दूर-दूर से पीहू -पीहू पीहू -पीहू कर रहे थे ,ऐसा लग रहा था जैसे कह रहे थे, कि आओ हमारे साथ  हमारे इस नृत्य में इस संगीत में खो जाओ और महसूस करो यहां की हवाओं में बहते हुए राधा और कृष्ण के प्रेम को। पता नहीं ,कौन सा संगीत सुना रहे थे, जो हमारे कानों को, हमारे मन को, और हमारे दिल -दिमाग को बहुत सुकून दे रहा था।लग ही नहीं रहा था कि हमें यहां से आगे जाना है। यात्रा का नाम तो निरंतरता है ।हम भी अपने कदमों को गति देते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। मोर कुटी की दुनिया ने  हमारे मन को आनंद और उल्लास से भर दिया था।  हमारा मन चंचल मोर की तरह नाचने लग रहा था ।


जैसे- जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे , हमारा मन चंचलता से स्थिरता की तरफ  बह रहा था।हमारे इस मंडल के जो संत श्री लक्ष्मणदास जी थे। जिन्होंने इस यात्रा को प्रारंभ किया था। उनके शिष्य संत श्री लाडली जी की समाधि इसी गहरबन में है, हम वहीं जा रहे थे।


समाधि पर पहुंचते ही हम सभी के उछलते-कूदते मन को जैसे विराम मिल गया था ,संगमरमर से बनी यह समाधि इस पूरे गहरवन में एक ऐसा शांति का प्रकाश बन कर चमक रही थी, जिसने ना जाने कितने हजारों लोगों को अध्यात्म का रास्ता दिखाया है, इस ब्रजधाम की पदयात्रा का रास्ता दिखाया है। जब आप किसी सिद्ध पुरुष की समाधि स्थल पर पहुंचते हो तो वहां कि हवा, वहां का वातावरण उन सभी में एक शांति मिलती है जो हमारे मन के विकारों को,हमारे मन के सवालों को ,और  हमारी तृष्णाओं को कुछ ही पल के लिए सही बिल्कुल विराम कर देती है। हमने उनके प्रतीक चरणों को छूकर प्रणाम किया और इस यात्रा के लिए आशीर्वाद लेते हुए आगे बढ़े।


बरसाना के चारों तरफ या यूं कहूं कि यहां की रज -रज में यहां के कण कण में राधा और कृष्ण की प्रेम लीलाओं के कई साक्ष और कई दर्शन  हैं गहरबन में  कई सरोवर , कई उपवन है जहां राधा और कृष्ण विहार करते थे ,खेलते थे ,कई तरह- तरह की लीलाएं करते थे।  आज हम यात्रा कर रहे थे ,उस आत्मिक प्रेम की जिसका इस सृष्टि में सर्वोच्च स्थान है, जैसे आत्मा दिखाई नहीं देती लेकिन होती है ठीक उसी प्रकार हम यहां आज  राधे कृष्णा को तो नहीं देख पा रहे थे,

लेकिन इस संपूर्ण वातावरण में यहां की प्रकृति में रचा- बसा उनका प्रेम दिख रहा था, हमारी आत्मा उसे महसूस कर रही थी।


बृज कुमारी और नंदलाल की लीलाओं की बातें सुनते -सुनते उनकी प्रेम लीलाओं की कल्पना करते -करते हम मानगढ़ पहुंच गए हमारे सामने था पहाड़ी पर एक विशाल महल 225 सीढ़ियां है और जहां राधे रानी कान्हा के साथ विराजमान है, यहां की कहानी  बहुत मजेदार है माना जाता है कि एक बार यहां राधे रानी  कान्हा से मिलने के लिए उनका इंतजार कर रही थी, परंतु कान्हा  को आने में  देर हो गई,  तो राधे रानी कान्हा से रूठ गई थी । मान का अर्थ होता है रूठना। तो जब राधे रानी कान्हा से रूठ गई तो महल की तरफ जाने लगी ,वह एक-एक सीढ़ियां चढ़ती जा रही थी और कान्हा  उन्हें मनाते जा रहे थे । कान्हा ने कई लीलाएं करी, उनको मनाने की परंतु राधेरानी नहीं मानी, और राधे रानी चलते-चलते ऊपर मानगढ़ में अपने महल में पहुंच गई, कान्हा ने सभी सखियों को कहा, की वह राधे रानी को मनाए। सखियों के बहुत मनाने पर भी राधे नहीं मानी। कान्हा स्वयं में कुशल और निपुण थे ,उन्होंने अपनी लीलाओं से राधा को मना ही लिया और इसीलिए इस जगह का नाम मानगढ़ पड़ा।



मानगढ़ में हमने राधे रानी के गुलाल के श्रंगार देखें। यहां ब्रज धाम के सभी बड़े मंदिरों में अमावस्या के बाद एकम से 15 20 दिनों तक रंगों का त्योहार चलता रहता है ,रोज होली के गीत गाए जाते हैं, गुलाल से होली खेली जाती है और भजनों में नाचते गाते आनंद उठाया जाता है। हम सभी ने यहां भजन गाकर नृत्य करके राधे रानी के साथ रास रचाया।यहाँ से हमने जयपुर मंदिर के दर्शन करने के लिए यात्रा प्रारम्भ की और वहाँ के भव्य मंदिर के दर्शन किये। ये मंदिर जयपुर के राजा जी द्वारा बनाया गया था ,आज भी यहाँ का संचालन राजस्थान सरकार के द्वारा ही होता है। 


यहां से हम सीधे राधा रानी के मंदिर पहुंचे, जहां से हमने परिक्रमा उठाई थी। अब हम अपने पड़ाव पर आकर प्रसाद ग्रहण कर थोड़ी देर विश्राम किया, आज हमें जल्दी थी लठमार होली देखने की, थोड़ी सी देर विश्राम कर के हम उस चौक में गए, जहां पर इस होली का आयोजन होना था।  वहां बहुत भीड़ लगी थी, हम लोग भी अपनी जगह रोक- रोक कर खड़े हो गए। मैं अपने जीवन में यह होली पहली बार देखने वाली थी, मैंने इसके विषय में बहुत सुना था, यहां इस होली के 1 दिन पहले बरसाने से नंदगांव में थालियों में गुलाल सजा कर निमंत्रण भेजा जाता है, होली खेलने के लिए ।तो दूसरे दिन नंदगांव से ग्वाले अपने साथ ढाल लेकर बरसाने के चौक में आते हैं।


हमने देखा चारों तरफ गुलाल उड़ने लगी ,ढोल बजने लगे, और ढोल के साथ नंद गांव के ग्वाले अपने-अपने हाथों में ढाल ले कर चौक में पहुंच गए।  तो यहां की गोपियां भी कम नहीं थी ,अपनी-अपनी लाठियों के साथ लहंगा चुन्नी पहनकर सजी-धजी उन ग्वालो की पिटाई करने यहां पहुंच गई। चारों तरफ से होली के गीत गूंजने लगे, ढोल की थाप बज रही थी और साथ में चल रहा था जोर-जोर से लाठियों का संगीत ,यहां हर गोपी को राधा स्वरुप देखा जाता है, और हर ग्वाला को कान्हा के जैसे, होली का खेल होने के बाद हम सभी कान्हा  और राधा से आशीर्वाद लेते हैं, और साथ में उन्हें भेंट देते है। 


राधे और कृष्ण के प्रेम का जादू ही है जो हजारों साल बीत जाने पर भी आज तक जीवंत है इस संसार में। एक ऐसा प्रेम जो शरीर का नहीं आत्मा का है।  राधे उम्र में कान्हा से बड़ी है।  मात्र 7 साल के कान्हा ने अपनी प्रेमिका को देखा, तो कभी उनसे दूर न हो पाए। 16 वर्ष की उम्र के बाद कान्हा कभी राधा से नहीं मिले।वे शरीर से अलग प्रतीत हो रहे थे  लेकिन उन दोनों की आत्मा एक ही थी ,जाते- जाते कान्हा ने राधा को अपनी बाँसुरी दे दी थी, और फिर कभी नहीं बजायी। यही वो प्रेम है की कान्हा की कई पत्नियाँ ,रानियाँ होते हुए भी सर्वोच्च स्थान राधा का ही है जो हमें सभी मंदिरों में दिखाई देता है।आज मैं अपने टैंट में अपनी कम्बल में घुस कर इस दिव्य प्रेम की गहराई में डूब रही थी डूबते- डूबते कब नींद आ गयी पता भी नहीं चला।  राधे राधे। 





गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

braj 84 kos padyatra day 13

5/3/17-नागाजी की कदम खण्डी ,सुदैवीजी के दर्शन, ऊंचे गाँव ,ललिता जी के दर्शन,देहकुंड।










रोज सुबह जब हम उठते थे, तो अपने बिस्तर समेट कर अपनी नित्य क्रिया से निवृत होकर, मैं या सरोज हम दोनों में से कोई भी हमारे पुरे ग्रुप के लिए चाय लेकर आते थे, सभी अपना- अपना सामान जमा कर ,त्रिपाल पर रख रहे होते थे।  चाय पीकर हम भी, अपने सामान को व्यवस्थित कर त्रिपाल  पर रख कर राधे रानी की आरती के लिए उनके मंदिर के सामने पहुंच जाते थे।
यात्रा प्रारंभ करते हुए, हम सब से पहले आज कदम खंड पहुंचे। कदम खंड जहां पर एक नागा साधु ने बहुत ही कठिन तपस्या की थी। वह भगवान की तपस्या में इतने लीन हो गए थे, कि उन्हें खुद की कोई सुध- बुध नहीं थी। वह राधा रानी और भगवान श्री कृष्ण के दर्शन करना चाहते थे,यह उनका हठ था। इस तपस्या के दौरान उनके बाल बहुत ज्यादा उलझ गए थे, और उनके बाल बहुत कठोर हो गए थे ।जब कोई भी उन्हें कहता अपने बालों का ध्यान रखने के लिए तो वह कहते कि मेरे बाल मेरे कान्हा और राधे रानी स्वयं आकर सुलझाएंगे । वह कई वर्षों तक निरंतर तपस्या करते रहे, और अपने हठ पर कायम रहे। उनकी इस साधना से प्रसन्न होकर भगवान श्री कृष्ण और राधेरानी स्वयं प्रकट हुए दोनों ने मिलकर उन नागा साधु बाबा के बाल सुलझाएं। उनके बाल इतने कठोर थे कि भगवान श्री कृष्ण और राधे रानी के हाथों में खून आने लगे। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने अपने भक्त का हट पूरा किया। अब यहां के मंदिर का जीर्णोद्धार हो चुका है, प्राचीन मंदिर के समीप अभी भी जो पेड़ है उन सभी पेड़ों के  पत्ते ,टहनियाँ बालों की तरह उलझे हुए  है, मान्यता है कि ये सभी पेड़ साधु बाबा के बालों को ही दर्शातें हैं।


भक्त और भगवान् की अनेकों कहानियाँ हमारे इतिहास में पौराणिक कथाओं में प्रचलित है, पर जब उन कथाओं के साक्ष्य भी देखने को मिलते हैं तो विश्वास और भी प्रबल हो जाता है। मेरे कदम सुदेवी जी के दर्शन की यात्रा पर बढ़ रहे थे,परन्तु मन अभी भी एक भक्त के हठ और उस जिद को पूरा करने वाले भगवान् पर ही अटका हुआ था। ऐसी कोनसी शक्ति होती थी, जो एक सधारण इंसान को भक्ति के लिए प्रेरित करती थी ,कई वर्षों तक भक्ति में लीन  रखती थी, क्या उन्हें भूख  ,प्यास ,गर्मी ,सर्दी कुछ भी परेशान नहीं करता था। मुझे तो लगता है वे हमारी तरह साधारण नहीं होते थे। वे तो कोई योग की अवस्था को प्राप्त किये हुए योगी ही होते थे। जिसे समझना मेरे बस की बात नहीं है। सरोज और मुझे  एक ठेले पर संतरे दिखे ,बहुत देर से भूख भी लग रही थी और प्यास भी हमने संतरे ख़रीदे और खाते -खाते  आगे बढे।

                                                 
राधे रानी की सबसे प्रिय 8 सखियाँ हैं ,सुदेवी जी राधे रानी की प्रिय सखी है ,ये राधे रानी के श्रृंगार करती ,फूलों की बागवानी करती ,और राधा कृष्ण का हर पल ध्यान रखने वाली प्रिय सखियों में से  एक है,इनका मंदिर सुनेरा गांव में है। सुदेवी जी के दर्शन  कर हम उचगांव के लिए निकले जहाँ राधे और कृष्णा की सबसे प्रिय सखी ललिता जी का मंदिर है।

यहाँ माना  जाता है की ललिता देवी से कान्हा जी का विवाह हुआ है इस मंदिर में सभी सुहाग की चीजें चढ़ाई जाती है, और साथ में सभी मेहँदी लगाती है। हम सभी ने यहाँ अपने पति की लम्बी आयु की कामना कर, अपने हाथों में मेहँदी लगायी। ललिता देवी सभी सखियों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखती थी, वे कान्हा और राधा के मिलने के सभी इंतजाम करती थी।वे बहुत जल्दी  नाराज भी हो जाती थी इन्हे बहुत जल्दी गुस्सा आता था। ये श्री कृष्ण से बहुत प्रेम करती थी। ये राधे और कान्हा दोनों की ही प्रिय थी ,इसीलिए सभी सखियों में इनका नाम पहले आता है। ये श्री राधे रानी से उम्र में बड़ी थी।



                                                        
कृष्ण अवतार स्वयं में एक पूर्ण अवतार है। कान्हा का आकर्षण इतना प्रगाढ़ है की कोई भी उससे बच नहीं सकता। आज मै कान्हा के प्रेम  रूप की यात्रा कर रही थी। कहीं भक्त के प्रति तो कही गोपियों के, सखियों के प्रति।गोपियों का प्रेम कान्हा के प्रति इतना निष्काम ,निश्छल और स्वार्थ रहित है, की आज के युग में तो हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। राधा कृष्ण तो एक ही आत्मा है, उन्हें कभी अलग नहीं  देखा जा सकता। गोपियाँ और सखियाँ भी सभी कान्हा  के रंग में अपनी आत्मा को  रंग चुकी थी, बस उनके शरीर ही उनके परिवार और इस संसार के प्रति अपना कर्तव्य निर्वाह कर रहे थे। ये कैसा प्रेम है , जिसे सभी एक दुसरे के साथ बाँट कर भी बहुत खुश होते है,यही है कृष्ण दर्शन कृष्ण का प्रेम।
सर पर तेज धुप लग रही थी ,हम उचगांव ,ललिता देवी के दर्शन कर आगे बढ़ रहे थे। ४-५ किलोमीटर चलने के बाद हवाएँ कुछ ठंडी होने लगी सामने देहकुंड के दर्शन हो रहे थे।माना जाता है की , यहाँ श्री राधा रानी ने भगवान् श्री कृष्ण का सोने से तुला दान किया था। उनकी देह के बराबर सोना एक गरीब को दिया था, अपनी पुत्री के विवाह के लिए। इसलिए यहाँ जो भी स्नान करता है, वो अपनी क्षमता के अनुरूप गुप्त दान करता है। हम सभी ने यहाँ स्नानादि कर अपनी- अपनी श्रद्धा से गुप्तदान किया। 

   
देह कुंड से हमने सूर्य कुंड ,प्रिय कुंड सभी के दर्शन किये ,और खेतों के रस्ते आगे बढ़ते गए। तेज धुप में आपके आस- पास लहराते हुए खेत आपके शरीर और आँखों दोनों को ठंडक पहुंचाते रहते है।आज का हमारा पड़ाव बरसाने में घुसते ही वाल्मीकि आश्रम पर है, यहाँ पहुंच कर हमने प्रसाद ग्रहण कर विश्राम किया। करीब 4 बजे हम यहाँ पास के राधे रानी के मंदिर में दर्शन करने गए। 
 गुलाबी रंग से सराबोर मंदिर में  चारों तरफ गुलाल ही गुलाल बिखरा हुआ था। मंदिर में गुलाबों से सजी राधे रानी के दर्शन कर हम मंदिर की परिक्रमा करने लगे। होली के दिनों में बरसाने में धूम मची होती है। पूरा मंदिर गुलाल से नहाया हुआ था, यहाँ लडुओं, फूलों और गुलाल से होली खेली जा रही थी। यहाँ की हवाओँ में उड़ता गुलाल हम सभी के मन को उल्लास से भर रहा था। हम सभी इस उत्सव में घुल गए और एक दुसरे के साथ प्रेम से रंग भरी होली खेल रहे थे।




सभी के चेहरे ख़ुशी के रंगो से खिले हुए थे। मन में उत्साह और आँखों में चमक थी। ये चमक थी  इस अनुपम यात्रा की। हँसते - खेलते दिन  का पहर बीत गया और हम अपने पड़ाव पर लौट आये। राधे रानी की आरती कर प्रसाद ग्रहण किया और भजन करने बैठ गए। कल हमें बरसाने की यात्रा में होली का एक और  रंग भी देखने को मिलेगा जिसे देखने यहाँ दूर दूर से लोग आते हैं लठमार होली।रात्रि विश्राम के लिए सभी अपने टैंट में पहुँच गए और कल सुबह की तैयारी करके सोने लगे।  कान्हा के भक्त की ,कान्हा के प्रेम की ,आज के आनंद की जय हो। राधे राधे। 






















सोमवार, 17 अप्रैल 2017

braj 84 kos padyatra day 12

4/3 /17 -चरण पहाड़ी ,भोजन थाली मंदिर ,विमल कुंड दर्शन।







एक अच्छी नींद के बाद ठीक 3:30 बजे मेरी आंख खुल जाती है , और तभी चारों तरफ हमारे टेंट की लाइटें भी  जल उठती है।  यह सुबह-सुबह का समय हमारे पास कुछ भी सोचने के लिए नहीं होता, बस एक ही लक्ष्य होता है 4ः15 से पहले-पहले राधे रानी के मंदिर के सामने पहुंचना क्योंकि वहां आरती शुरू हो जाती है।  वहां किसी का इंतजार नहीं किया जाता इसीलिए सभी कोशिश करते हैं कि 4:10 तक वहां पहुंच जाएं। आरती करके , आशीर्वाद ले हम राधे रानी के साथ यात्रा पर निकल पड़े।  आज भी हम पहाड़ों के बीच में से ही निकल रहे थे,चारों तरफ घोर अंधेरा था बहुत संभल- संभल कर चलना था ।  मैंने देखा आसमान में लाल, पीला, केसरी जैसे कई रंग गुलाल की तरह फैलने लगे थे। यह सूर्योदय के पहले का शंखनाद था। हम सभी एक जगह पर रुक गए और तसल्ली से सूर्य भगवान को निकलते हुए देखने लगे। सूरज तो रोज ही उगता है ,पर हम उस समय अपने घरों में अपने कार्य में व्यस्त होते है, इस यात्रा के दौरान मैंने प्रकृति के अलग- अलग कोने से सूर्योदय के अलग-अलग रूप देखे हैं। आज  ऐसा प्रतीत हो रहा था  जैसे सूर्य भगवान अपने बाल रूप में बादलों की रजाई से बाहर निकल रहे थे।



केदार से निकलते हुए आज हमारा पड़ाव काम वन में था।वहाँ एक गांव है जो की अब कामा गांव के नाम से जाना जाता है। 4 किलोमीटर चलने के बाद हम चरण पहाड़ी पर पहुंच गए। ये  क्षेत्र है जहाँ श्री कृष्ण अपने बाल सखा के साथ खेला करते थे। अपनी गायों को यहाँ चराने लाते थे।अपनी बंसी की धुन पर सभी को आकर्षित और मंत्रमुग्ध कर देते थे।  आज मेरे साथ पुष्पा मैडम चल रही थी ,जो तीन वर्षों से इस यात्रा पर आ रही है, ये मकराना में टीचर है इसीलिए हम इन्हे मैडम ही बुलाते थे। उन्होंने मुझे बताया की चरण पहाड़ी पर कान्हा खेला करते थे।

                                       

इस पहाड़ी पर एक प्राकृतिक तिसल- पट्टी बनी हुई है, ऐसा माना  जाता है की कान्हा  यहाँ फिसल -फिसल करअपनी मित्र मण्डली के साथ खेलते थे।हम भी आज कान्हा के बचपन को जीने के लिए, पहाड़ पर चढ़ कर इस तिसल -पट्टी पर फिसलने की तैयारी करने लगे। चाहे भगवान् का बचपन हो या हमारा आज भी फिसलने में उतना ही मजा आता है। हम सभी एक के पीछे एक बैठकर राधे- राधे बोलते हुए  एक साथ फिसलने लगे। पल भर के लिए ही सही सभी को कान्हा की बाल- लीला का अनुभव हो रहा था। पीछे से सभी के एक साथ आने की वजह से हम निचे फस गए थे, जल्दी से उठ नहीं पा रहे थे, तुरंत ही हमें हमारी उम्र का पता चल गया। कभी कभी बच्चा बनने का भी अलग ही मजा है।



चरण पहाड़ी पर फिसल कर हम आगे बढे, थोड़ी दूर में ही भोजन थाली मंदिर था। पुष्पा मैडम ने बताया की यहाँ जब भगवान् गायों को चराने आते थे, तो दोपहर में उनके लिए यहाँ की गुजरिया भोजन लाती थी छाछ और रोटी, तो भगवान् यहाँ बैठकर खाया करते थे।किसी प्रकार के बर्तन नहीं थे तो कान्हा ने पहाड़ को पिघला कर उसे ही बर्तनों का रूप दे दिया था।  इसीलिए यहाँ कान्हा का मंदिर है और पहाड़ पर थाली और कटोरियों की आकृति भी बनी हुई है जिसमे वे भोजन करते थे। हम सभी ने यहाँ स्टील के बर्तन मंदिर में चढ़ाये और एक बड़े कटोरे के भी दर्शन किये जहाँ कान्हा  बैठकर दूध पिते  थे, पहाड़ में इस प्रकार थाली कटोरी और बड़ा दूध का कटोरा की आकृति देख कर बहुत आश्चर्य हो रहा था। यहाँ की फोटो नहीं ले सकते थे। तो बस यहाँ से आगे हम विमल कुंड के लिए निकल पड़े। 



विमल कुंड कामा गाँव के पास ही था। यहाँ राजा विमल का राज्य हुआ करता था जो की भगवान श्री कृष्ण के भक्त थे। विमल कुंड की परिक्रमा 3 km की है इसके चारों तरफ कई देवताओ के मंदिर बने हुए है। यहाँ की एक कथा और भी प्रचलित है जब राक्षस भौमासुर ने 16000 कन्याओं का अपहरण कर अपनी गुफा में कैद कर लिया था,उन्ही में से एक राजा विमल की पुत्री विमला भी थी, जो श्री कृष्ण की बहुत बड़ी भक्त थी।  तब उन सभी कन्याओं ने श्री कृष्ण को अपने उद्धार के लिए पुकारा और भगवान ने स्वयं आकर उन सभी की लाज बचायी और उस राक्षस का वध किया। बंदी गृह से निकल कर सभी लड़कियों ने कान्हा से कहा की अब हमें ये संसार नहीं अपनायेगा। कोई भी हमसे विवाह नहीं करेगा। हम सभी आत्मदाह कर ले, यही हमारे और हमारे पिता के लिए अच्छा होगा। उन सभी को मरने से बचने के लिए कान्हा ने उन सभी का वरण किया ,उनका जीवन सार्थक किया।देवी विमला का इस कुंड के किनारे एक मंदिर भी है।  राजा विमल ने भी कान्हा से एक वरदान माँगा की कुछ देर के लिए मुझे आपका स्वरूप दीजिये,जो इस बात का प्रमाण हो की आप यहाँ आये थे। इसीलिए यहाँ कुंड के किनारे एक मंदिर में राजा विमल और भगवान् कृष्ण की एक जैसी दो मूर्तियाँ है, जो वस्त्र हाव -भाव में   एक जैसी ही प्रतीत होती है। राजा विंमल के नाम पर ही इस कुंड का नाम विमल कुंड पड़ा।

यहाँ स्नानादि कर हमने सभी मंदिरो के दर्शन किये और हमारे पड़ाव कामा गांव पर पहुंच  गए। प्रसाद ग्रहण कर सभी अपने टैंट में आराम करने लगे। थोड़ी देर आराम करने के बाद, शाम को वहाँ से एक मोटर साईकिल वाला रिक्शा किया और  500 साल पुराने  बने राधा कृष्ण मंदिर में  गए।

यशोमति मैया से, बोले नंदलाला। 



यहाँ कान्हा को देख कर यही भजन याद आ रहा था।यहाँ आस पास कई मंदिर थे। राधा की सखी ललिता देवी ,सालिग्राम जी की पत्नी वृंदा देवी ,कामेश्वर भगवान् शिव, ये सभी मंदिर बहुत पुराने है, जिनकी कई कथाएँ यहाँ प्रचलित है।

                                     
हम  ने सभी मंदिरों  के दर्शन कियेऔर पुनः अपने टैंट में लौट आये। राधे रानी की आरती कर प्रसाद ग्रहण किया और सभी विश्राम गृह में पहुँच गए।आज पूरे दिन की यात्रा में हमने कई पुराने मंदिर देखे ,  कान्हा की दिनचर्या से जुड़े, कई प्रमाण देखे, एक साधारण बालक की भाँति वे जहाँ खेलते थे ,पहाड़ों पर भोजन करते थे, तो वही असाधारण मनु की तरह एक राक्षस से अनेक स्त्रियों को बचाकर उन्हें स्वयं के नाम से जोड़कर एक सम्मान दे रहे थे ।


अब तक ये सभी कहानियाँ मुझे पौराणिक लगती थी, परन्तु आज इन सभी के प्रमाण देख कर मुझे ये कल के इतिहास के पन्ने की भाँति प्रतीत हो रहे थे। हम जैसे साधारण लोग जो सूरदास जी या मीरा बाई की भक्ति से समानता नहीं कर सकते, लेकिन कान्हा के इतने साक्ष्यों को देख कर , स्पर्श कर, हमें भी यही अनुभव हो रहा था जैसे वे यहीं बैठकर बंसी बजा रहे है ,गइया यही चर रही है ,कहीं वे सखा के साथ खेल रहे है ,मैं  ये कह सकती हूँ की आज सभी पौराणिक कथाओं का जीवन्त चित्रण मेरी आँखों के सामने चल रहा था। ये ठीक वैसा ही है  जैसे महाराणा प्रताप के किले में जाकर हम उन्हें बहुत करीब से महसूस कर सकते हैं, तो यदि कान्हा को करीब से, दिल से महसूस करना है तो एक बार ये ब्रज यात्रा जरूर करनी चाहिए। यूँ तो भगवान कण कण में है पर ब्रज धाम में वो जीवंत दिखाई भी देते हैं, जो हमें घर बैठ कर कभी अनुभव नहीं हो सकता। आज मुझे ये समझ आया की कान्हा के बड़े- बड़े भक्त मथुरा, वृन्दावन क्यों आते थे, जबकि वे तो भगवान् को आँख बंद करके भी अपने समक्ष पा लेते थे। कान्हा का आकर्षण ,उनकी लीलाएँ ,उनकी माया नगरीऔर सर्वोपरि उनका प्रेम इतना  निश्छल ,भव्य और विशाल है की कोई भी उससे पृथक नहीं हो सकता। सभी यहाँ खींचे चले आते है।
अब रात की बातों पर विराम लगाती हूँ क्यों की  कल के रंग में डूबने के लिए आज सोना बहुत जरूरी है। 
राधे राधे। 







रविवार, 16 अप्रैल 2017

braj 84 kos padyatra day 11


3 /3 /17 -केदार दर्शन , बादली। 














ताजगी भरे दिन की शुरुआत हो रही है ,सुबह के 3:30 बज रहे हैं। यात्रा पर निकलने के लिए सभी टेंटों में उथल पुथल मची हुई है। पता नहीं हम सभी के कौन से पंख लग जाते है, कि हम सभी 4:00 बजे तक राधे रानी के मंदिर के सामने पहुंच जाते हैं ,सभी ने प्रेम से आरती गाई। और राधे रानी के दर्शन कर उनका आशीर्वाद ले, उनके साथ आगे बढ़े। आज हमें कई पहाड़ियों को पार कर केदार बदली पहुंचना है, जहां भगवान शिव का मंदिर है। रास्ते में सबसे पहले हमने निंबार्क राधा कृष्ण मंदिर के दर्शन किए ,सुबह-सुबह का समय और भगवान कंबल में लिपटे हुए थे। मधुर-मधुर मुस्कान से मानो मुझसे पूछ रहे थे- "कैसा लगा मेरी नगरी में आकर ?" उन्हें देख कर मेरा ह्रदय गदगद हो गया था अंतर्मन में, और स्मृतियों में, बस ,कल का चित्रण चल रहा था। वो रती से मिलना ,वो छाछ रोटी खाना, वो रात को उसका दूध लेकर आना ,ऐसा लग रहा था जैसे कान्हा मेरे मुख पर आए भावों को पढ़ कर मुस्कुरा रहे थे ।मेरे भाव आंखों से बहे जा रहे थे,और मन में एक आभार था बहुत-बहुत धन्यवाद  प्रभु कि आपने  मुझे इस यात्रा में इतने अच्छे अनुभव करवाएं ।



मैं भगवान से बातें करते-करते खो गई थी, तभी सरोज का हाथ मेरे कंधे पर पड़ा और सरोज ने कहा अरे चल सखी, सब लोग जा रहे है। पीछे मुड़कर देखा, तो सच में हम दो ही मंदिर में रुके हुए थे । मैंने एक बार फिर कान्हा जी का धन्यवाद किया और केदार की पहाड़ियों में भ्रमण करने निकल पड़े। पहाड़ों के बीच में से सूर्योदय देखना ऐसा लगता है जैसे एक बड़े से दीपक के बीच में जलती हुई लो, जो धीरे-धीरे बड़ी होती जा रही हो ,जैसे जैसे सूर्य की किरणें पेड़ों पर, पहाड़ों पर, पत्थरों पर, पड़ती है वैसे वैसे सभी एक  नए रंग मैं बिल्कुल निखर कर सामने  आते हैं। पहाड़ों के उबड़- खाबड़ रास्ते इतने सरल नहीं थे हमारे लिए। लेकिन फिर भी हम से आगे बढ़ते हुए लोग हमें थकने नहीं दे रहे थे। हमारा शरीर और आत्मा दोनों अलग- अलग है यह तो आपने भी सुना होगा,लेकिन मैं आज ये  महसूस भी कर रही थी, क्योंकि जब भी पहाड़ो की चढ़ाई आती, तो मेरे और मेरी सखियों के पैर ,घुटने, फेफड़े और सांसे हमें चिल्ला चिल्ला कर कह रहे थे ,कि बस करो, अब और हिम्मत नहीं है आगे बढ़ने की, लेकिन हमारी आत्मा की आवाज वह हमारा मनोबल बढ़ा  रही थी, और हमें निरंतर आगे का रास्ता दिखता जा रहा था। हम सभी एक दूसरे का सहारा बनते हुए, रुकते ,थकते ,पानी पीते हुए, बैठते हुए, आगे बढ़ते जा रहे थे.और तभी हमें दूर से दिखाई देने लगा भगवान शिव का मंदिर एक ऊंची पहाड़ी पर 335 सीढ़ियां पार कर हमें वहां पहुंचना था। जब लक्ष्य सामने होता है तो बाकी सभी बातें गौण  हो जाती है और हमारा ध्यान केवल हमारे लक्ष्य प्राप्ति पर हो जाता है।  बस वैसे ही हमें भी मंदिर की वह 335 सीढ़ियां ही  दिखाई दे रही थी। गहरे भूरे रंग के पहाड़ पर यह सफेद सीढ़ियां बिल्कुल मोतियों के समान चमक रही थी।

    मंदिर तक पहुंच गए ऊंचाई और एकांत में भगवान शिव का मंदिर उछलती-कूदती नदी में एक शांति से खड़ी चट्टान के  जैसा था। भगवान शिव पर जलाभिषेक कर हमने चारों तरफ परिक्रमा की, और दूर-दूर तक बिखरे प्राकृतिक सौंदर्य को अपनी आंखों में और अपने मोबाइल फोन में कैद करने लगे ।  

वहां का दृश्य बहुत सुंदर था, ऐसा लग रहा था जैसे किसी विशाल समुद्र के बीच एक ऊंचे से टापू पर हम खड़े हैं।  चारों तरफ की  शांति हमारे मन में उतर रही थी हम सभी के हंसने बोलने की आवाज  चारों तरफ गूंज रही थी।  अभी कुछ देर पहले ही हम लोग थक कर चूर हो गए थे।  लेकिन यहां ठंडी- ठंडी हवा के स्पर्श ने हमारे सारे शरीर की थकान को दूर कर,  हमारे तन- मन को एक ताजा खिले फूल की तरह  महका दिया था। निचे तो हम बच्चों की तरह दौड़ते दौडते ही उतरने लगे। 



सीढ़ियों से नीचे एक मंदिर के पास हमारा टेंट लगा हुआ था । पड़ाव में पहुंचकर हमने देखा कि वहां की गांव की औरतें स्वयं चल- चलकर हमारे पास आ रही है, हमारा स्वागत करने के लिए, और हमारी बहने बनने के लिए।सभी हम से गले मिल- मिल कर पूछ रहीथी।आपकी कोई बहन बनी? मुझसे भी एक ने पूछा- आपकी कोई बहन बनी? मैंने कहा -नहीं तो,वो मुझसे गले मिलती है और बोलती है "मैं अब आपकी बहन हूं "और वे  हमें  अपने अपने घर लेकर जाती है ।  जहां हम उन्हें साड़ी और कुछ सुहाग की चीजें देकर अपनी बहन बनाते हैं। और वह हमारी अपने घर में आवभगत करती है, हमें बड़े प्यार से भोजन कराति  है, छाछ पिलाती है, यहां तक कि हमारे कपड़े धोने के लिए हमें जगह देती है, और हमारा पूरा ध्यान रखती है ,मुझे सब देखकर बहुत आश्चर्य हो रहा था ।पर साथ में अच्छा भी लग रहा था ,बार-बार रति की याद मेरे मन-मस्तिष्क पर छाई जा रही थी। सच में यहां के लोगों में कितना प्यार है, यह बिल्कुल अलग ही दुनिया है जहां बिना किसी स्वार्थ के बिना किसी मोह के आप किसी अंजान इंसान को इतना महत्व देते हो, और उसे भोजन कराकर उसकी जरूरतों को पूरा कर आप उसे अपना एहसानमंद बना देते हो।यह उन्हें भी पता होता है कि हम यहां वापस लौट कर शायद ही आएंगे। दुबारा उनसे मिलेंगे भी, या नहीं। सभी कुछ जानते हुए भी इतना प्यार इतने सारे लोगों के लिए कहां से लेकर आते हैं ये लोग? ये प्रश्न मेरे दिमाग में बार-बार उठ रहा था।  उत्तर भी मिल गया था, यह जादू था यहां की हवा में, जादू था कान्हा की नगरी का,यह जादू था कान्हा के निश्चल के प्रेम का, जिसका आनंद इस बृज धाम की यात्रा के कोने-कोने में बिखरा हुआ था।

आज का पूरा दिन हमारी बहनों के साथ, सखियों के साथ कब बीत गया, पता भी नहीं चला।  अब शाम होने को  थी। पहाड़ों में छिपता सूरज एक और दिन अपने साथ लेकर जा रहा था।  आज हम सब मिलकर वही देख रहे थे। गोधूलि बेला का रंग.उसमें डूबी  कहीं झोपड़ियां, गांव का आंगन ,घास काटने वाला चरखा, तो कहीं गोबर की थापी से बनी  झोपड़ी, यहां की मिट्टी की खुशबू ,घरों के बाहर खूंटे पर बंधी गाय ,बकरी ,भैंस ,बड़े बड़े छाँयादार पेड़ ये सभी मिल कर ही भारत का एक गांव बनाते है। हम सभी आज इस  गांव में घूम कर यहाँ के सुकून और शांति को जी रहे थे।  फिर हमने राधे रानी की आरती की और वहां की सभी हमारी बहनों के साथ भजन गाए आज हमें बहुत मजा आ रहा था. ढोलकी की थाप पर भजन सुनने जैसे पूरा गांव आ गया था और सभी हमारे साथ उसी भक्ति के रंग में डूब गए थे।

भजन संध्या कर हम सभी ने प्रसादी ग्रहण की, और अपने अपने टेंट में आराम करने के लिए पहुंच गए।  रोज की तरह सभी ने अपने अनुभव को अपनी डायरी में लिखना शुरु कर दिया।  मैं भी सबसे बातें करके अपने सामान को व्यवस्थित कर सोने की तैयारी करने लगी।  अपनी कंबल में घुसकर अब मैं अपने मन से बातें कर रही थी।  अब तो ये रोज की आदत हो गयी है , मैं सोच रही थी ,कि हमारी जीवन शैली और इन गांव वालों की जीवन शैली में कितना अंतर है, हम फिर भी पता नहीं कौन से सुख के लिए भागते रहते हैं? और यह एक झोपड़ी में रह कर भी, दूसरों के लिए इतना करते हुए भी ,अपने चेहरे पर इक शिकन तक नहीं लाते, और इनके जीवन में, इनके चेहरे पर, इनके घर पर, कितना सुकून बिखरा हुआ दिखता है । इस यात्रा में आने से पहले मैंने एक बार जरूर सोचा था, कि सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक जितनी सुख सुविधाओं के सामान हमने हमारे आस- पास एकत्रित कर रखे हैं क्या उनके बिना मैं  रह पाऊँगी ?कहीं न कहीं मुझे खुद पर थोड़ा सा ही सही पर  संदेह था। आज पूरे दस दिन होने को आये है, इन दिनों में मैंने ये बात बहुत अच्छे से समझ ली की ये मात्र ,हमारा भ्रम होता है की हमें जीने के लिए सभी सुख सुविधाओं ,विलासिता से भरी सभी वस्तुओं की अत्यंत आवश्यकता है, इनके बिना हम कभी खुश और सुखी  नहीं हो सकते। जबकि इन गाँव वालों से मैंने सीखा की ख़ुशी का सुविधाओं से कोई नाता नहीं है, आज इनके पास इतने सिमित साधन होते हुए भी, इनमे बहुत कुछ पाने की कोई लालसा नहीं थी।ये जहाँ है, बहुत खुश और संतुष्ट है। यही भाव इन्हे हमसे बिलकुल अलग कर देता है।  हम सभी कुछ पाकर भी और पाने की चाहत में दौड़ते रहते हैं। अपनी ख़ुशी को नयी- नयी चीजों से जोड़ते रहते है। ठीक वैसे ही जैसे मृग अपनी ही  खुशबु पाने के लिए  चारों तरफ दौड़ता  रहता है जबकि वो  उसके भीतर ही होती है। मुझे तो मेरे भीतर बहते हुए इस सुकून से मिलना बहुत अच्छा लग रहा है। कल का दिन मुझे क्या सिखाएगा ये तो वक्त ही बताएगा। आज के लिए    । राधे राधे।  











गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

braj chourasi kos pad yatra day 10

2/3/17-आदि बद्री दर्शन ,गंगोत्री ,जमनोत्री ,हरिद्वार ,मनसा माता दर्शन।








कल रात की घटना से मेरे मन को जिस प्रकाश की अनुभूति हुई थी, उसी का उजाला आज की भोर  में दिख रहा था। आज मन सुबह से ही बहुत ही खुश और इस यात्रा पर आगे जाने को बेचैन था।  रोज की तरह हमने आरती कर राधे रानी का आशीर्वाद लिया। और 4: 15 पर यात्रा के लिए रवाना हुए। करीब  4 किलोमीटर चलने के बाद ही हमारे रास्ते में बारिश ने जमकर  हमारा स्वागत किया। हम में से किसी के पास में भी छतरी या कोई रेनकोट नहीं थे। सभी नहीं चाहते हुए भी भीगने पर मजबूर थे ।यूं तो सर्दी जनवरी -फरवरी तक ही रहती है, परंतु गांव में अभी भी बहुत ठंड चल रही थी, और ठंडी में बारिश का मजा सुहाना नहीं होता। वहीं कहीं रास्ते में एक बरामदा देखा और हम सभी उस में घुस कर अपने आप को बारिश से बचाने लगे। चारों तरफ खेत दूर- दूर तक कोई घर नहीं झमाझम बारिश बरस रही थी। लेकिन हमारे लिए कान्हा जी ने छतरी खोल दी थी। मैं वहां खड़ी- खड़ी यही सोच रही थी, कि प्रभु हमारा कितना ध्यान रखतेहै ,हमारे हर कदम पर उन्हें हमारी कितनी चिंता रहतीहै। हम चाहे किसी तैयारी में हो या ना हो, परंतु भगवान पूरी तैयारी में रहते हैं कब उनके भक्तों को किस चीज की जरूरत पड़ जाए उन्हें सब पता होता है। आधे घंटे में ही बारिश रुक जाती है , और हम आगे बढ़ने लगते हैं।
लेकिन कुछ ही दूर चलते- चलते हमारे साथ चल रही है एक भाभी का पैर फिसल जाता है, और वह रास्ते में गिर पड़ती है, उनके बहुत चोट आती है।  उन्हें देखकर हम सभी का मन बहुत दुखी हो जाता है, बारिश की वजह से मिट्टी बहुत चिकनी हो गई थी इसीलिए अब वहां पर बहुत संभल- संभल कर चलना पड़ रहा था. छोटी सी गलती भी बहुत भारी पड़ सकती थी। हमने तुरंत कार्यकर्ताओं को फोन किया और उन्हें गाड़ी तक पहुंचाया। उनकी यह हालत देखकर हम थोड़े उदास हो गए थे और बहुत सावधानी पूर्वक चल रहे थे। पर किसे पता था कि, कुछ ही दूर में हमारी सारी उदासी इसी बारिश की वजह से छू हो जाएगी। रास्ते पर आगे बढ़ते -बढ़ते मौसम इतना सुहाना हो गया था, कि मैं आपको बता नहीं सकती।मैं और सरोज  चारों तरफ की फोटो ले रहे थे, कभी वीडियो बना रहे थे, और बहुत मजे कर रहे थे।  इस मौसम ने हमारी यात्रा का मजा दुगना कर दिया था चारों तरफ हरे- भरे खेत, मिट्टी की सोंधी सोंधी खुशबू, कई रंगों से भरा आसमान, हरे- हरे पौधों पर पीले पीले सरसों के फूल, यह नजारा बहुत खूबसूरत था।



यूं ही हंसते खेलते मजे करते हुए ,हम खेतों को पार करते चले गए और अलीपुर गांव में पहुंच गए।  यह  गांव गुजरियो का गांव था, वही गुजरी जो कान्हा को अपने घर दही और माखन खिलाने बुलाती थी। उनके लिए दही और माखन की मटकियां भर-भर कर रखती थी। आज इनके शरीर तो बदल गए परंतु इनकी आत्मा अभी भी उसी प्रेम सागर में डूबी हुई है ।जैसे ही हम यहां पहुंचे वे हमें बड़े प्यार से बुलाने लगी, अपने घर पर खाना खिलाने के लिए। हमें देख कर बहुत आश्चर्य हुआ ।हमें भी एक बहुत ही सुंदर सी गुजरी ने हाथ पकड़कर बड़े स्नेह के साथ अपने घर पर बुलाया ,हमें कहने लगी," तुम दोनों मुझे बहुत अच्छी लग रही हो, मेरे घर चलोगी खाना खाने ?चलो तुम्हें बाजरे की रोटी और साथ में छाछ पिलाती हूं "।किसी अनजाने का पहली बार मिलना, और सीधे मिलते ही भोजन के लिए पूछना ,आपको बहुत अजीब लग रहा होगा ।लेकिन वहां मुझे और सरोज को उसका यू पूछना बहुत अच्छा लगा ।ऐसा लगा जैसे वह हमें जानती है ,और हम उसे जानते हैं ,हम कुछ भी नहीं सोच पा रहे थे, हमने बस उसे कह दिया कि हां क्यों नहीं ,चलो ,और हम उसके पीछे -पीछे उसके घर चल पड़े। दो कमरे बाहर बड़ा सारा गार से बना चबूतरा, उस चबूतरे पर मिट्टी का चूल्हा और कूलर पड़ा था तो दूसरी ओर कच्ची मिट्टी में  बंधी गाय और बकरियां और उनके छोटे-छोटे बच्चे हमारा मन मोह रहे थे । उसके घर जाकर जब हम बैठे तो मैं सोच रही थी कि वाह रे कान्हा तेरे कितने रूप है, आज इस गुजरी के रूप में हमें कितने प्रेम से खाना खिला रहा है, वरना आज की इस दुनिया में ऐसा अनुभव कहां मिलेगा ।मुझे आज सुबह से ही लग रहा था, की आज की यात्रा बहुत सुंदर होने वाली है ,और यहां आकर उस अनुभूति को एक प्रमाण भी मिल गया। उसकी बेटी हमारे लिए गरम- गरम बाजरे की रोटी बना रही थी उस बाजरे की रोटी के साथ छाछ पी कर पेट मन और आत्मा सभी तृप्त हो गए थे । रति जितना प्यारा उसका नाम था, उतना ही सच्चा और भोला उसका व्यवहार ।उसने हमसे हमारे फोन नंबर लिए, हमारे साथ फोटो खिंचवाई और फिर से पूरे परिवार के साथ आने का वादा लिया। हमने भी उसे बहुत-बहुत धन्यवाद किया और उसका आभार किया। हम उसे कुछ भेंट देना चाहते थे ,परंतु उसने लेने से मना कर दिया ,हमेशा याद रखने के लिए हम उसे एक निशानी देकर आए ।हमने अपने मोबाइल में इस पल को कैद कर लिया था। जो आज भी और हमेशा मेरे साथ रहेगा ।उसके घर के सामने कदम के पेड़ थे। वह कदम के पेड़ जो कान्हा की मुरली के और उनकी तरह-तरह की लीलाओं के साक्षी थे। हमने इन 11 कदम के पेड़ों के परिक्रमा की और रति से स्नेहपूर्ण विदाई लेते हुए आगे बढ़े। उसका मन नहीं मान रहा था, वह हमें कुछ दूर तक छोड़ने के लिए साथ-साथ भी आई। सच तो यह है कि मन तो हमारा भी नहीं मान रहा था, परंतु हम यात्रा पर थे और हमें आगे बढ़ना था।






थोड़ी दूर आगे बढ़ने के बाद हमें एक और गुजरी मिली उसकी दो बेटियां भी थी। उसने हमें छाछ पिलाई और दूध की एक बोतल  भरकर साथ में दी उसने हमें देख कर कहा" तुम दोनों तो बहुत बड़ी सेठानी जैसी लग रही हो, तो हमने कहा नहीं भाई, हम तो तुम्हारे जैसे ही है तो उसने कहा कि" मैं कुछ मागूगी तो दोगी" तो हमने बोला हां जरूर बोलो तुम्हें क्या चाहिए? तो सरोज के गले में एक बहुत सुंदर सी माला थी ,उस गुर्जरी को वह माला बहुत पसंद आई  और उसने कहा कि "सोच लो दे पाओगी" तो हमने कहा बोलो तो सही तो उसने कहा" मुझे यह माला बहुत पसंद है" सरोज ने तुरंत अपने गले में से निकालकर वह माला उसे भेंट दी ,उसे इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था। उसकी बेटियां भी उसे मना कर रही थी, लेकिन हमने उसे मनाया और उसे बड़े प्यार से वह माला उपहार के स्वरूप दी। वहां से आगे निकल कर हम खो गांव होते हुए तपत कुंड पहुंचे।


 जहां हम ने स्नान किया और आदि बद्री और लक्ष्मण झूला के दर्शन किए. थोड़ी दूर और आगे बढ़ने के बाद रास्ते में हमने गंगोत्री, जमनोत्री, हरिद्वार और मनसा माता के दर्शन किए।  इस पूरी यात्रा में हर वह स्थान आता है, जो हमारे हिंदुओं की चार धाम की यात्रा में आता है, यह उसी चार धाम की यात्रा का एक छोटा रूप है। सभी जगह दर्शन करते हुए हम आदि बद्री में हमारे पड़ाव पर पहुंचे।आज हमें हमारे टेंट पर पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई थी।  आरती का समय होने वाला था हम सभी ने आरती गाई , भजन किए और प्रसाद ग्रहण किया। चारों तरफ लाइट जलने लग गई थी, अंधेरा छाने लगा था और हम अपने टेंट में बैठकर आज की बातें कर रहे थे, तभी सामने से एक आवाज आई यह 17 नंबर टेंट कौन सा है? जिसमें चंदा और सरोज रहती है, हमने देखा रति हमारा टेंट ढूंढ रही थी ।हमने उसे जोर से आवाज दी ,अरे ,हम इधर है इधर आ जाओ। हमें उसके आने की कोई उम्मीद नहीं थी, उसे देखकर हम बहुत खुश हो गए थे। वह एक बाल्टी भरकर दूध लेकर आई थी। हम सभी को पिलाने के लिए वह हमारे साथ टेंट में बैठी और उसने हम सभी को थोड़ा -थोड़ा दूध दिया। उसका इतना स्वार्थ रहित प्रेम बहुत ही अद्भुत था ।उसने हम सभी से बैठ कर ढेरों बातें की, आज उसका यहां से जाने का मन नहीं था ।वह अपने बेटे के साथ बाइक पर बैठ कर आई थी। वह हमसे और हम उससे बिछड़कर बहुत ही भावुक हो रहे थे, पता नहीं क्यों? यह कैसा रिश्ता था ?और इस रिश्ते का क्या नाम है? हम नहीं जानते ,परंतु जो भी था वह हमारे जीवन के एक पन्ने पर हमेशा के लिए छप गया।








रति के जाने के बाद हम सभी अपना- अपना सामान समेटने लगे और कल की तैयारी करने लगे। आज भी हमारा टेंट जंगल के करीब था, चारों तरफ से भेड़ियों की आवाज़ आ रही थी हमारे टेंट के चारों तरफ आग जलाकर  रखी गई थी, मंडल के कार्यकर्ता हाथ में बंदूके लेकर पूरी रात पहरा दे रहे थे। आज ना मेरे मन में कोई सवाल था और ना कोई जवाब देने की इच्छा। आज तो बस मैं जिस प्रेम को दोनों हाथों से बटोर कर आई थी, उसे सहेजने की इच्छा थी, आज जिस प्रकार रति ने हमें प्रेम से भोजन करवाया हमें गले लगाया हमारे लिए दूध लेकर आई बस यही सारी बातें मेरे दिलो-दिमाग पर छाई हुई थी. रति के रूप में मुझे वह भगवान दिख रहा था जिसके अपार प्रेम की बारिश में मैं भीगी हुई थी।
 आज भोर  में भी मैं भीग गई थी ,और अब रात की शुरुआत में भी मैं भीग रही हूं ,फर्क है उन बारिश की बूंदों का जो दिन में मुझे बाहर से भीगा रही थी और अब मेरे मन और मेरी आत्मा को भीगा  रही है। पहले तो कभी ऐसी बारिश नहीं हुई, और ना कभी मैंने महसूस किया, पर आज इस बारिश में भीगने का मजा बहुत अद्भुत था। जिसका वर्णन मैं शब्दों में नहीं कर सकती । हर रोज मूर्तियों मैं प्रभु की छवि को निहारती थी, पर आज  मैं साक्षात मिल कर आई हूं तो नींद कैसे आती, लेकिन तभी से पहरेदारों ने आवाज लगाना शुरु किया ,सभी आराम से सो जाइए सुबह जल्दी उठकर चलना है मानो कह रहे थे, कि सो जाइए कल फिर भगवान को किसी ना किसी रूप में मिलना है, उस मिलने की लालसा में सोना तो बहुत जरूरी था, इसीलिए आज के लिए शुभ रात्रि कल पता नहीं कान्हा कौन से रूप में हमारा इंतजार कर रहा होगा।
।राधे राधे।

बुधवार, 5 अप्रैल 2017

Braj 84kos padyatra day 9

1/3/2017-बलदेव कुण्ड से बहज होते हुए डीग। 



रात भर बहुत ठण्ड लग रही थी। सुबह 3:00 बजे कानों में आवाज आती है, उठ जाओ सा, मंजन कुल्ला कर लो , सुबह हो गई है ,चाय पियो ।आज सुबह 4:00 बजे चलना है ,आँखे खुलने की कोशिश करती है , और मन कहता है थोड़ी देर और सोने दो ना, तभी मन में वह संकल्प याद आता है , जो हमें आगे की यात्रा के लिए प्रेरित करता है ।सभी लाइटे चारों तरफ से जल जाती है ,सभी लोगों की प्रातः कालीन नित्य क्रियाएं शुरू हो जाती है ।सब को देखते हुए ,मैं भी झटपट उठ कर बिस्तर समेटती  हूं और नित्यक्रिया में लग जाती हूं ।4:00 बजने में 10 मिनट कम है, हम सभी राधे रानी के मंदिर के सामने आरती के लिए एकत्रित हो चुके हैं ,आरती के पूर्ण होते ही हम सभी राधे रानी के साथ अपनी यात्रा पर निकल पड़ते हैं।


आज हमारे रास्ते में बहुत सारे दर्शन नहीं थे ।आज हमें एक लंबी दूरी 20 किलोमीटर चलना था। अब हमारे ग्रुप के सभी सदस्यों में एक बहुत अच्छा तालमेल हो गया था ।हम सुबह सुबह का समय खूब जोर- जोर से भजन गाते हुए ,राधे-राधे करते हुए और मजे करते हुए चलते थे।हम सभी एक दूसरे को सखी -सखी कहकर बुलाते थे। सरोज, रंजू ,बेबी, पुष्पा,सरला ,सुशीला ,रंजीता ,रंजना ,आशा की मम्मी ,नीला जीजी ,मामीजी ये सभी मेरी सखियां थी। किसी भी यात्रा में यदि आपको एक अच्छा दोस्त मिल जाये तो सफर बहुत सुहाना और आसान हो जाता है, फिर चाहे वो जीवन की यात्रा हो या चौरासी कोस की। मेरे और सरोज के साथ ने कब इतनी लंबी दूरी तय कर ली पता भी नहीं चला।

जब आप किसी भी ऐसी यात्रा पर चलते हो जहां बहुत सारे लोग होते हैं, तो बहुत कुछ ऐसा होता है ,जो आपको हमेशा याद रह जाता है।आज हम कुछ ऐसी ही चर्चा कर रहे थे। यहां हम एक ऐसी महिला से मिले, जिनको हम जीजा बाई बोलते थे। जो जोधपुर की रहने वाली थी। वह स्वयं गठिया के रोग से पीड़ित थी, इसलिए उन्होंने इस बार पूरी यात्रा कार में ही की थी । शाम को वह जब हमारे पास  टेंट में आती थी ,तब अपने अनुभव की अच्छी-अच्छी बातें बताती थी। सभी लोग जिनके बहुत ज्यादा दर्द हो ,या जो बहुत ज्यादा पीड़ा में हो ,कोई पेट में दर्द हो ,या पैर में दर्द हो ,या सर में दर्द हो, तो सभी के वह एक प्रकार का झाड़ा देती थी ।पता नहीं वह कौन सा विश्वास था कि उनके झाड़ा  देने के बाद पीड़ित व्यक्ति को बहुत आराम मिलता था। वे कई वर्षों से इस यात्रा में आ रही है।स्वयं के दर्द को अनदेखा कर दूसरो के दुःख की परवाह कैसे करते है वो हमें अनजाने में यही सिखाती थी , उन्हें देख कर बहुत अच्छा लगता था। 


समय बढ़ता जा रहा था धीरे-धीरे धूप भी अपना रंग दिखा रही थी ।आज मेरा भी बहुत जी घबरा रहा था, चलते- चलते रास्ते में उल्टियां होने लगी, सर बहुत भारी हो गया था, और चक्कर आने लग गए थे ।अभी 10:00 ही बजे थे, मेरे साथ चलने वाले लोग, मुझे देख कर कहने लगे, कि आप गाड़ी में बैठ जाओ,आपके लिए हम फोन कर देते हैं, लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा था। सरोज मुझसे आगे बढ़ चुकी थी, मैंने भी हिम्मत नहीं हारी और धीरे-धीरे चलती रही ।मैंने सभी को गाड़ी के लिए मना कर दिया। 1 किलोमीटर चलने के बाद, देखा तो सरोज मेरा इंतजार कर रही थी।

उसे खबर मिल चुकी थी, कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है ,हम लाल कुंड पर पहुंच गए थे।  वहां बैठे, थोड़ी देर आराम किया। कोई मेरे लिए नींबू और नमक लेकर आ रहा था, कोई अपने पास से पाचक निकालकर दे रहा था, कोई मुझे संतरा खिला रहा था, सभी अपनी- अपनी तरफ से मेरा बहुत ध्यान रख रहे थे।घर से बाहर, अनजाने लोगो का ग्रुप भी एक परिवार के सामान ही होता है, एक दूसरे का ध्यान रखना हमारी आदत बन गया था।  लाल कुंड वह जगह थी ।जहां भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मेहंदी के हाथ धोए थे, इसीलिए यहां का पानी लाल हो गया था और यहां का नाम लाल कुंड पड़ा ।यहां पर कुछ देर आराम करने के बाद मुझे लगा की अब हम चल सकते हैं ,हाथ में नींबू उस पर नमक और काली मिर्च डालकर मैं उसका रस पीती पीती जा रही थी, लेकिन फिर भी मुझे पूरा आराम नहीं मिला और मुझे फिर से चक्कर आने लगे। तब सरोज ने मेरे लिए फोन करके गाड़ी मंगा दी और मैं वहां से 4 किलोमीटर की यात्रा में गाड़ी से टेंट पहुंची।


 शाम तक आराम करने के बाद मैं बिल्कुल स्वस्थ महसूस कर रही थी।  हमने सभी ने मिलकर राधे रानी की आरती की,ढोलक की थाप पर  खूब भजन गाए, आज हमारा टेंट जंगल में लगा था इसलिए जंगल में मंगल हो रहा था ।शाम के भोजन की तैयारी  चल रही थी।  करीब 7:30 बजे थे,भोजन कर , हम सभी अपने टेंट में बैठकर आपस में बातें करने लगे।  तभी अचानक से जोर-जोर से बादलों के गरजने की आवाज आई, हम सभी डर गए, एक तो टेंट और ऊपर से बारिश हो गयी तो , हम सभी ने अपने चारों तरफ मिट्टी की पाल बांधना शुरू कर दिया।  चारों तरफ बादल गरज रहे थे ,बहुत तेज तूफान आ रहा था, और बिजली चमक रही थी।  यकीन मानिए ,एक जंगल में एक टेंट के अंदर बहुत डर लग रहा था, तभी  माइक पर एक अनाउंसमेंट कि आवाज आने लगी।" किसी ने भी गिरिराज पर्वत से पत्थर उठाया है, और यहां लेकर आए हैं तो ,कृपया करके सभी अपने-अपने पत्थर राधे रानी के सामने लाकर रख दे ,हमें वह पत्थर  पर्वत पर वापस रख कर आने पड़ेगें ।ये  बादलों की गर्जना और बिजली का चमकना, इसी बात का इशारा है की  आप में से कोई पत्थर उठाकर  लाया  हैं ।आप सभी डरे नहीं और कृपया सभी प्रभु से क्षमा याचना करें। गोवर्धन पर्वत भगवान के समान है, वे  जहां है उनकी पूजा वहीं पर ही होती है, इसीलिए उन्हें किसी भी उद्देश्य से वहां से उठाकर लाना निषेध है।" इतना सुनते ही लोगों में  घबराहट  और भगदड़  होने लगी।  सभी अपने -अपने  बैग और सामान में तलाश करने लगे,  कि कहीं कोई  पत्थर  गलती से तो नहीं आ गया। जो लोग जान- बूझ कर लाये थे। वे सभी राधे रानी के सामने रखने लगे, देखते ही देखते वहां बहुत सारे पत्थर इकट्ठे हो गए। गोवर्धन यात्रा पर हमें कई बार कहा गया था की यहाँ से पत्थर नहीं उठाना है। कुछ लोगो को तो सही में ये नहीं पता था। परंतु कुछ लोगो के लालच ने उनके कान बंद कर दिए थे। हम सभी ने मिलकर भगवान् से क्षमा याचना की और हमारी यात्रा सफल हो इस बात की प्रार्थना की। पता नहीं,आपको भरोसा होगा या नहीं, मात्र आधे घंटे में बादल की गड़गड़ाहट ,तेज हवाये ,बिजली का चमकना जो सभी हमें डरा रहे थे, बिलकुल शांत हो गए। अचानक हुई इस शांति ने मन में एक खलबली पैदा कर दी। मानो कान्हा हँसते हुए कह रहे है, की तुम  गलत करो या सही मैं सब देख रहा हूँ। प्रकृति के कण -कण में हमारे हर क्षण में वो विद्यमान है बस हमें उसके संकेतों को पहचानने की जरूरत है। आज कुछ लोग बारिश के डर में सो रहे थे ,कुछ पश्च्याताप में सो रहे थे ,और मैं इस घटना के सार में डूब रही थी। मेरी आस्था मेरा ईश्वर के प्रति विस्वास और प्रबल  होता जा रहा था। बाहर अँधेरा गहरा होता जा रहा था, और मन में प्रकाश फैलता जा रहा था। आँखे उस रौशनी में डूबते- डूबते कल का इन्तजार कर रही थी। हर रोज मेरे कदम एक नए अनुभव की लालसा में बढ़ रहे थे, जो मिल रहा था वो कम लग रहा था।  सचमुच, लालच चैन से सोने भी नहीं देता। दिमाग ने शरीर को सोने का निर्देश दिया, और मुझे सोना पड़ा कल के इन्तजार में। 
राधे राधे