शनिवार, 22 अप्रैल 2017

braj 84 kos padyatra day 14



7/3/17-बरसाना परिक्रमा ,गहरवन ,जयपुर मंदिर, मानगढ़ 
         लठमार होली।

                                                                 



भोर में 5:00 बजे उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त हो हमने राधे रानी की आरती की , और बरसाने की परिक्रमा के लिए  श्री राधे जी के मंदिर पहुंच गए। जहां कल हमने लड्डूओं की होली खेली थी। यह मंदिर कई सीढ़ियों की ऊंचाई पर है, मंदिर के सामने जाकर महसूस होता है, कि आप बरसाने की महारानी के भव्य और विशाल महल के

सामने खड़े  हो। जहां स्वयं श्री राधे रानी जी विराजमान है,  जो इस संपूर्ण मंदिर और बरसाने को सुशोभित करती है। आज की हमारी यात्रा का रास्ता पूरा पहाड़ी के इर्द-गिर्द ही है, बरसाना भी पहाड़ी के आस-पास ही बसा हुआ है, इसीलिए यहां की छटा बहुत निराली है, श्री राधे जी  की भांति बहुत सुंदर है और यहां का रास्ता भी बहुत प्यारा है। श्री राधे के भजन गाते- गाते हम चतुर्भुज मंदिर पर पहुंचे जहां हमने चतुर्भुज भगवान के दर्शन किए उनका आशीर्वाद लिया।



वहाँ से मोर कुटी के लिए आगे बढ़े। बरसाने की पूरी यात्रा 9 किलोमीटर की थी। हरे- भरे खेत और उन खेतों के बीच में गुजरते हुए रास्ते। मुझे याद आ रहा है था  मेरे बच्चों का बचपन,  जब वह छोटे थे ,तो अपनी ड्राइंग कॉपी में ऐसे ही सीनरी बनाया करते थे। जिसमें खेत छोटे -छोटे रास्ते छोटी-छोटी झोपड़ियां  पेड़ और पहाड़ सब कुछ होता था । और मुझे वही सब चीजें यहां दिख रही थी । चलते -चलते ही रास्ते में अचानक से आवाज आने लगी, हम में से ही कुछ लोग जोर- जोर से चिल्लाने लगे देखो, इतने सारे मोर, एक साथ इतने सारे मोर , मैंने भी देखा सचमुच बहुत आश्चर्य की बात। थी

 मैंने आज तक कभी एक साथ इतने सारे मोर को नृत्य करते हुए घूमते हुए नहीं देखा था ।बहुत सुंदर -सुंदर मोर थे, जो खेत-खलिहानों में बड़े-बड़े पंख लिए घूम रहे थे, तब पता चला हम मोर कुटी पहुंच चुके है।इस जगह का नाम मोर कुटी इसलिए पड़ा क्योंकि यह माना जाता है की, राधे रानी यहां  मोर को नृत्य सिखाती  थी।  सभी मोर उनके साथ नृत्य करते थे , उस बीच कभी- कभी कान्हा  भी मोर बन कर वहां राधे रानी से  नृत्य सीखने आते थे,  और जब वह गलत करते थे तो राधे रानी उन्हें  डांट लगाती थी,  और यही बात कान्हा  को बहुत अच्छी लगती थी, इसीलिए मोर कुटी में बहुत सारे मोर है।

 यह सभी मोर आज हमें बोलकर बता तो नहीं सकते , परंतु कहते हैं कि यह सभी साक्ष्य है , राधे रानी और कान्हा के अनुपम प्रेम की  लीलाओं के  । मैं रुक कर उन मोरों की फोटो खींचना चाह रही थी, पर जब भी मैं फोटो खींचती ,वह नाचना बंद कर देते, और फिर जैसे मैं फोटो लेना बंद करती, वह नाचना शुरू कर देते ,जैसे वह कह रहे थे कि आपको देखना है तो आप हमें देखो ,लेकिन हमें कैद मत करो। चारों तरफ से आसमान में पीहू -पीहू की आवाज आ रही थी ,मोर दूर-दूर से पीहू -पीहू पीहू -पीहू कर रहे थे ,ऐसा लग रहा था जैसे कह रहे थे, कि आओ हमारे साथ  हमारे इस नृत्य में इस संगीत में खो जाओ और महसूस करो यहां की हवाओं में बहते हुए राधा और कृष्ण के प्रेम को। पता नहीं ,कौन सा संगीत सुना रहे थे, जो हमारे कानों को, हमारे मन को, और हमारे दिल -दिमाग को बहुत सुकून दे रहा था।लग ही नहीं रहा था कि हमें यहां से आगे जाना है। यात्रा का नाम तो निरंतरता है ।हम भी अपने कदमों को गति देते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। मोर कुटी की दुनिया ने  हमारे मन को आनंद और उल्लास से भर दिया था।  हमारा मन चंचल मोर की तरह नाचने लग रहा था ।


जैसे- जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे , हमारा मन चंचलता से स्थिरता की तरफ  बह रहा था।हमारे इस मंडल के जो संत श्री लक्ष्मणदास जी थे। जिन्होंने इस यात्रा को प्रारंभ किया था। उनके शिष्य संत श्री लाडली जी की समाधि इसी गहरबन में है, हम वहीं जा रहे थे।


समाधि पर पहुंचते ही हम सभी के उछलते-कूदते मन को जैसे विराम मिल गया था ,संगमरमर से बनी यह समाधि इस पूरे गहरवन में एक ऐसा शांति का प्रकाश बन कर चमक रही थी, जिसने ना जाने कितने हजारों लोगों को अध्यात्म का रास्ता दिखाया है, इस ब्रजधाम की पदयात्रा का रास्ता दिखाया है। जब आप किसी सिद्ध पुरुष की समाधि स्थल पर पहुंचते हो तो वहां कि हवा, वहां का वातावरण उन सभी में एक शांति मिलती है जो हमारे मन के विकारों को,हमारे मन के सवालों को ,और  हमारी तृष्णाओं को कुछ ही पल के लिए सही बिल्कुल विराम कर देती है। हमने उनके प्रतीक चरणों को छूकर प्रणाम किया और इस यात्रा के लिए आशीर्वाद लेते हुए आगे बढ़े।


बरसाना के चारों तरफ या यूं कहूं कि यहां की रज -रज में यहां के कण कण में राधा और कृष्ण की प्रेम लीलाओं के कई साक्ष और कई दर्शन  हैं गहरबन में  कई सरोवर , कई उपवन है जहां राधा और कृष्ण विहार करते थे ,खेलते थे ,कई तरह- तरह की लीलाएं करते थे।  आज हम यात्रा कर रहे थे ,उस आत्मिक प्रेम की जिसका इस सृष्टि में सर्वोच्च स्थान है, जैसे आत्मा दिखाई नहीं देती लेकिन होती है ठीक उसी प्रकार हम यहां आज  राधे कृष्णा को तो नहीं देख पा रहे थे,

लेकिन इस संपूर्ण वातावरण में यहां की प्रकृति में रचा- बसा उनका प्रेम दिख रहा था, हमारी आत्मा उसे महसूस कर रही थी।


बृज कुमारी और नंदलाल की लीलाओं की बातें सुनते -सुनते उनकी प्रेम लीलाओं की कल्पना करते -करते हम मानगढ़ पहुंच गए हमारे सामने था पहाड़ी पर एक विशाल महल 225 सीढ़ियां है और जहां राधे रानी कान्हा के साथ विराजमान है, यहां की कहानी  बहुत मजेदार है माना जाता है कि एक बार यहां राधे रानी  कान्हा से मिलने के लिए उनका इंतजार कर रही थी, परंतु कान्हा  को आने में  देर हो गई,  तो राधे रानी कान्हा से रूठ गई थी । मान का अर्थ होता है रूठना। तो जब राधे रानी कान्हा से रूठ गई तो महल की तरफ जाने लगी ,वह एक-एक सीढ़ियां चढ़ती जा रही थी और कान्हा  उन्हें मनाते जा रहे थे । कान्हा ने कई लीलाएं करी, उनको मनाने की परंतु राधेरानी नहीं मानी, और राधे रानी चलते-चलते ऊपर मानगढ़ में अपने महल में पहुंच गई, कान्हा ने सभी सखियों को कहा, की वह राधे रानी को मनाए। सखियों के बहुत मनाने पर भी राधे नहीं मानी। कान्हा स्वयं में कुशल और निपुण थे ,उन्होंने अपनी लीलाओं से राधा को मना ही लिया और इसीलिए इस जगह का नाम मानगढ़ पड़ा।



मानगढ़ में हमने राधे रानी के गुलाल के श्रंगार देखें। यहां ब्रज धाम के सभी बड़े मंदिरों में अमावस्या के बाद एकम से 15 20 दिनों तक रंगों का त्योहार चलता रहता है ,रोज होली के गीत गाए जाते हैं, गुलाल से होली खेली जाती है और भजनों में नाचते गाते आनंद उठाया जाता है। हम सभी ने यहां भजन गाकर नृत्य करके राधे रानी के साथ रास रचाया।यहाँ से हमने जयपुर मंदिर के दर्शन करने के लिए यात्रा प्रारम्भ की और वहाँ के भव्य मंदिर के दर्शन किये। ये मंदिर जयपुर के राजा जी द्वारा बनाया गया था ,आज भी यहाँ का संचालन राजस्थान सरकार के द्वारा ही होता है। 


यहां से हम सीधे राधा रानी के मंदिर पहुंचे, जहां से हमने परिक्रमा उठाई थी। अब हम अपने पड़ाव पर आकर प्रसाद ग्रहण कर थोड़ी देर विश्राम किया, आज हमें जल्दी थी लठमार होली देखने की, थोड़ी सी देर विश्राम कर के हम उस चौक में गए, जहां पर इस होली का आयोजन होना था।  वहां बहुत भीड़ लगी थी, हम लोग भी अपनी जगह रोक- रोक कर खड़े हो गए। मैं अपने जीवन में यह होली पहली बार देखने वाली थी, मैंने इसके विषय में बहुत सुना था, यहां इस होली के 1 दिन पहले बरसाने से नंदगांव में थालियों में गुलाल सजा कर निमंत्रण भेजा जाता है, होली खेलने के लिए ।तो दूसरे दिन नंदगांव से ग्वाले अपने साथ ढाल लेकर बरसाने के चौक में आते हैं।


हमने देखा चारों तरफ गुलाल उड़ने लगी ,ढोल बजने लगे, और ढोल के साथ नंद गांव के ग्वाले अपने-अपने हाथों में ढाल ले कर चौक में पहुंच गए।  तो यहां की गोपियां भी कम नहीं थी ,अपनी-अपनी लाठियों के साथ लहंगा चुन्नी पहनकर सजी-धजी उन ग्वालो की पिटाई करने यहां पहुंच गई। चारों तरफ से होली के गीत गूंजने लगे, ढोल की थाप बज रही थी और साथ में चल रहा था जोर-जोर से लाठियों का संगीत ,यहां हर गोपी को राधा स्वरुप देखा जाता है, और हर ग्वाला को कान्हा के जैसे, होली का खेल होने के बाद हम सभी कान्हा  और राधा से आशीर्वाद लेते हैं, और साथ में उन्हें भेंट देते है। 


राधे और कृष्ण के प्रेम का जादू ही है जो हजारों साल बीत जाने पर भी आज तक जीवंत है इस संसार में। एक ऐसा प्रेम जो शरीर का नहीं आत्मा का है।  राधे उम्र में कान्हा से बड़ी है।  मात्र 7 साल के कान्हा ने अपनी प्रेमिका को देखा, तो कभी उनसे दूर न हो पाए। 16 वर्ष की उम्र के बाद कान्हा कभी राधा से नहीं मिले।वे शरीर से अलग प्रतीत हो रहे थे  लेकिन उन दोनों की आत्मा एक ही थी ,जाते- जाते कान्हा ने राधा को अपनी बाँसुरी दे दी थी, और फिर कभी नहीं बजायी। यही वो प्रेम है की कान्हा की कई पत्नियाँ ,रानियाँ होते हुए भी सर्वोच्च स्थान राधा का ही है जो हमें सभी मंदिरों में दिखाई देता है।आज मैं अपने टैंट में अपनी कम्बल में घुस कर इस दिव्य प्रेम की गहराई में डूब रही थी डूबते- डूबते कब नींद आ गयी पता भी नहीं चला।  राधे राधे। 





1 टिप्पणी: