रविवार, 16 अप्रैल 2017

braj 84 kos padyatra day 11


3 /3 /17 -केदार दर्शन , बादली। 














ताजगी भरे दिन की शुरुआत हो रही है ,सुबह के 3:30 बज रहे हैं। यात्रा पर निकलने के लिए सभी टेंटों में उथल पुथल मची हुई है। पता नहीं हम सभी के कौन से पंख लग जाते है, कि हम सभी 4:00 बजे तक राधे रानी के मंदिर के सामने पहुंच जाते हैं ,सभी ने प्रेम से आरती गाई। और राधे रानी के दर्शन कर उनका आशीर्वाद ले, उनके साथ आगे बढ़े। आज हमें कई पहाड़ियों को पार कर केदार बदली पहुंचना है, जहां भगवान शिव का मंदिर है। रास्ते में सबसे पहले हमने निंबार्क राधा कृष्ण मंदिर के दर्शन किए ,सुबह-सुबह का समय और भगवान कंबल में लिपटे हुए थे। मधुर-मधुर मुस्कान से मानो मुझसे पूछ रहे थे- "कैसा लगा मेरी नगरी में आकर ?" उन्हें देख कर मेरा ह्रदय गदगद हो गया था अंतर्मन में, और स्मृतियों में, बस ,कल का चित्रण चल रहा था। वो रती से मिलना ,वो छाछ रोटी खाना, वो रात को उसका दूध लेकर आना ,ऐसा लग रहा था जैसे कान्हा मेरे मुख पर आए भावों को पढ़ कर मुस्कुरा रहे थे ।मेरे भाव आंखों से बहे जा रहे थे,और मन में एक आभार था बहुत-बहुत धन्यवाद  प्रभु कि आपने  मुझे इस यात्रा में इतने अच्छे अनुभव करवाएं ।



मैं भगवान से बातें करते-करते खो गई थी, तभी सरोज का हाथ मेरे कंधे पर पड़ा और सरोज ने कहा अरे चल सखी, सब लोग जा रहे है। पीछे मुड़कर देखा, तो सच में हम दो ही मंदिर में रुके हुए थे । मैंने एक बार फिर कान्हा जी का धन्यवाद किया और केदार की पहाड़ियों में भ्रमण करने निकल पड़े। पहाड़ों के बीच में से सूर्योदय देखना ऐसा लगता है जैसे एक बड़े से दीपक के बीच में जलती हुई लो, जो धीरे-धीरे बड़ी होती जा रही हो ,जैसे जैसे सूर्य की किरणें पेड़ों पर, पहाड़ों पर, पत्थरों पर, पड़ती है वैसे वैसे सभी एक  नए रंग मैं बिल्कुल निखर कर सामने  आते हैं। पहाड़ों के उबड़- खाबड़ रास्ते इतने सरल नहीं थे हमारे लिए। लेकिन फिर भी हम से आगे बढ़ते हुए लोग हमें थकने नहीं दे रहे थे। हमारा शरीर और आत्मा दोनों अलग- अलग है यह तो आपने भी सुना होगा,लेकिन मैं आज ये  महसूस भी कर रही थी, क्योंकि जब भी पहाड़ो की चढ़ाई आती, तो मेरे और मेरी सखियों के पैर ,घुटने, फेफड़े और सांसे हमें चिल्ला चिल्ला कर कह रहे थे ,कि बस करो, अब और हिम्मत नहीं है आगे बढ़ने की, लेकिन हमारी आत्मा की आवाज वह हमारा मनोबल बढ़ा  रही थी, और हमें निरंतर आगे का रास्ता दिखता जा रहा था। हम सभी एक दूसरे का सहारा बनते हुए, रुकते ,थकते ,पानी पीते हुए, बैठते हुए, आगे बढ़ते जा रहे थे.और तभी हमें दूर से दिखाई देने लगा भगवान शिव का मंदिर एक ऊंची पहाड़ी पर 335 सीढ़ियां पार कर हमें वहां पहुंचना था। जब लक्ष्य सामने होता है तो बाकी सभी बातें गौण  हो जाती है और हमारा ध्यान केवल हमारे लक्ष्य प्राप्ति पर हो जाता है।  बस वैसे ही हमें भी मंदिर की वह 335 सीढ़ियां ही  दिखाई दे रही थी। गहरे भूरे रंग के पहाड़ पर यह सफेद सीढ़ियां बिल्कुल मोतियों के समान चमक रही थी।

    मंदिर तक पहुंच गए ऊंचाई और एकांत में भगवान शिव का मंदिर उछलती-कूदती नदी में एक शांति से खड़ी चट्टान के  जैसा था। भगवान शिव पर जलाभिषेक कर हमने चारों तरफ परिक्रमा की, और दूर-दूर तक बिखरे प्राकृतिक सौंदर्य को अपनी आंखों में और अपने मोबाइल फोन में कैद करने लगे ।  

वहां का दृश्य बहुत सुंदर था, ऐसा लग रहा था जैसे किसी विशाल समुद्र के बीच एक ऊंचे से टापू पर हम खड़े हैं।  चारों तरफ की  शांति हमारे मन में उतर रही थी हम सभी के हंसने बोलने की आवाज  चारों तरफ गूंज रही थी।  अभी कुछ देर पहले ही हम लोग थक कर चूर हो गए थे।  लेकिन यहां ठंडी- ठंडी हवा के स्पर्श ने हमारे सारे शरीर की थकान को दूर कर,  हमारे तन- मन को एक ताजा खिले फूल की तरह  महका दिया था। निचे तो हम बच्चों की तरह दौड़ते दौडते ही उतरने लगे। 



सीढ़ियों से नीचे एक मंदिर के पास हमारा टेंट लगा हुआ था । पड़ाव में पहुंचकर हमने देखा कि वहां की गांव की औरतें स्वयं चल- चलकर हमारे पास आ रही है, हमारा स्वागत करने के लिए, और हमारी बहने बनने के लिए।सभी हम से गले मिल- मिल कर पूछ रहीथी।आपकी कोई बहन बनी? मुझसे भी एक ने पूछा- आपकी कोई बहन बनी? मैंने कहा -नहीं तो,वो मुझसे गले मिलती है और बोलती है "मैं अब आपकी बहन हूं "और वे  हमें  अपने अपने घर लेकर जाती है ।  जहां हम उन्हें साड़ी और कुछ सुहाग की चीजें देकर अपनी बहन बनाते हैं। और वह हमारी अपने घर में आवभगत करती है, हमें बड़े प्यार से भोजन कराति  है, छाछ पिलाती है, यहां तक कि हमारे कपड़े धोने के लिए हमें जगह देती है, और हमारा पूरा ध्यान रखती है ,मुझे सब देखकर बहुत आश्चर्य हो रहा था ।पर साथ में अच्छा भी लग रहा था ,बार-बार रति की याद मेरे मन-मस्तिष्क पर छाई जा रही थी। सच में यहां के लोगों में कितना प्यार है, यह बिल्कुल अलग ही दुनिया है जहां बिना किसी स्वार्थ के बिना किसी मोह के आप किसी अंजान इंसान को इतना महत्व देते हो, और उसे भोजन कराकर उसकी जरूरतों को पूरा कर आप उसे अपना एहसानमंद बना देते हो।यह उन्हें भी पता होता है कि हम यहां वापस लौट कर शायद ही आएंगे। दुबारा उनसे मिलेंगे भी, या नहीं। सभी कुछ जानते हुए भी इतना प्यार इतने सारे लोगों के लिए कहां से लेकर आते हैं ये लोग? ये प्रश्न मेरे दिमाग में बार-बार उठ रहा था।  उत्तर भी मिल गया था, यह जादू था यहां की हवा में, जादू था कान्हा की नगरी का,यह जादू था कान्हा के निश्चल के प्रेम का, जिसका आनंद इस बृज धाम की यात्रा के कोने-कोने में बिखरा हुआ था।

आज का पूरा दिन हमारी बहनों के साथ, सखियों के साथ कब बीत गया, पता भी नहीं चला।  अब शाम होने को  थी। पहाड़ों में छिपता सूरज एक और दिन अपने साथ लेकर जा रहा था।  आज हम सब मिलकर वही देख रहे थे। गोधूलि बेला का रंग.उसमें डूबी  कहीं झोपड़ियां, गांव का आंगन ,घास काटने वाला चरखा, तो कहीं गोबर की थापी से बनी  झोपड़ी, यहां की मिट्टी की खुशबू ,घरों के बाहर खूंटे पर बंधी गाय ,बकरी ,भैंस ,बड़े बड़े छाँयादार पेड़ ये सभी मिल कर ही भारत का एक गांव बनाते है। हम सभी आज इस  गांव में घूम कर यहाँ के सुकून और शांति को जी रहे थे।  फिर हमने राधे रानी की आरती की और वहां की सभी हमारी बहनों के साथ भजन गाए आज हमें बहुत मजा आ रहा था. ढोलकी की थाप पर भजन सुनने जैसे पूरा गांव आ गया था और सभी हमारे साथ उसी भक्ति के रंग में डूब गए थे।

भजन संध्या कर हम सभी ने प्रसादी ग्रहण की, और अपने अपने टेंट में आराम करने के लिए पहुंच गए।  रोज की तरह सभी ने अपने अनुभव को अपनी डायरी में लिखना शुरु कर दिया।  मैं भी सबसे बातें करके अपने सामान को व्यवस्थित कर सोने की तैयारी करने लगी।  अपनी कंबल में घुसकर अब मैं अपने मन से बातें कर रही थी।  अब तो ये रोज की आदत हो गयी है , मैं सोच रही थी ,कि हमारी जीवन शैली और इन गांव वालों की जीवन शैली में कितना अंतर है, हम फिर भी पता नहीं कौन से सुख के लिए भागते रहते हैं? और यह एक झोपड़ी में रह कर भी, दूसरों के लिए इतना करते हुए भी ,अपने चेहरे पर इक शिकन तक नहीं लाते, और इनके जीवन में, इनके चेहरे पर, इनके घर पर, कितना सुकून बिखरा हुआ दिखता है । इस यात्रा में आने से पहले मैंने एक बार जरूर सोचा था, कि सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक जितनी सुख सुविधाओं के सामान हमने हमारे आस- पास एकत्रित कर रखे हैं क्या उनके बिना मैं  रह पाऊँगी ?कहीं न कहीं मुझे खुद पर थोड़ा सा ही सही पर  संदेह था। आज पूरे दस दिन होने को आये है, इन दिनों में मैंने ये बात बहुत अच्छे से समझ ली की ये मात्र ,हमारा भ्रम होता है की हमें जीने के लिए सभी सुख सुविधाओं ,विलासिता से भरी सभी वस्तुओं की अत्यंत आवश्यकता है, इनके बिना हम कभी खुश और सुखी  नहीं हो सकते। जबकि इन गाँव वालों से मैंने सीखा की ख़ुशी का सुविधाओं से कोई नाता नहीं है, आज इनके पास इतने सिमित साधन होते हुए भी, इनमे बहुत कुछ पाने की कोई लालसा नहीं थी।ये जहाँ है, बहुत खुश और संतुष्ट है। यही भाव इन्हे हमसे बिलकुल अलग कर देता है।  हम सभी कुछ पाकर भी और पाने की चाहत में दौड़ते रहते हैं। अपनी ख़ुशी को नयी- नयी चीजों से जोड़ते रहते है। ठीक वैसे ही जैसे मृग अपनी ही  खुशबु पाने के लिए  चारों तरफ दौड़ता  रहता है जबकि वो  उसके भीतर ही होती है। मुझे तो मेरे भीतर बहते हुए इस सुकून से मिलना बहुत अच्छा लग रहा है। कल का दिन मुझे क्या सिखाएगा ये तो वक्त ही बताएगा। आज के लिए    । राधे राधे।  











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