मंगलवार, 21 मार्च 2017

Braj 84 kos padyatra day 8

28/2/2017-कुसुम सरोवर , पूछरी का लोटा ,जातिपुरा मुखारविंद ,मानसी गंगा ,हरिदर्शन। 



आज हमें गोवर्धन परिक्रमा की बाकी की यात्रा पूरी करनी थी। एक खास बात, हम जब भी सुबह यात्रा के लिए रवाना होते, हम माँ राधे रानी की आरती करते, और ब्रिज रज यानी वहाँ की मिट्टी को माथे  पर लगाते, और एक चिमटी मुँह में लेते, इस विश्वास के साथ की ये हमारी हर प्रकार  से रक्षा करेंगी । सुबह- सुबह 5 बजे  मानसी गंगा के  ठन्डे पानी में डुबकी लगा कर पूरी श्रद्धा से वहाँ  पूजा की, और चाँदी के दीपक चढाये। वहां से हम दान घाटी मंदिर भगवान् जी के दर्शन करने के लिए निकले। 

                                                                    
दान घाटी मंदिर पहुँच कर हमने मंगला आरती के  दर्शन किये,और आगे की यात्रा के लिए आशीर्वाद लिया। वहां दान करने के लिए हमने बाहर दूकान से कुछ बिस्किट के पैकेट लिए, वहाँ मंदिर के बाहर बैठे, लोगो को बॉटने के लिए।मैंने 20  -30  पैकेट बॉट दिए थे, सरोज ने भी कुछ बाटे, और कुछ आगे के लिए रख लिए। हम बाहर के रास्ते से परिक्रमा करने लगे, वहाँ किमिट्टी  रुई की जैसी नरम- नरम थी।  हमारे पैरों के लिए जैसे, भगवान् ने कालीन बिछा रखा था। चलने में बड़ा मजा आ रहा था।  तभी आगे से बंदरों की टोली ने अटेक कर दिया।  आस- पास से बहुत बन्दर आने लगे वे सब हमारे साथ- साथ चल रहे  थे। सरोज ने ,रंजू ने और बाकी सखियों ने जो बिस्किट के पैकेट रखे थे, वे सभी बन्दर छीन- छीन कर भागने लगे। कभी शॉल से कभी बैग से वे छीन- छीन कर अपनी दावत उड़ा रहे थे। अब क्यों की मेरे पास कुछ नहीं था, तो मुझे बड़े मजे आ रहे थे।मेरा पूरा सामान मेरे कंधे पर टंगे बैग में था। मैं भी उसे बंदरों से बचा कर चल रही थी।  सोचिये,सुबह -सुबह का समय  पक्षियों की आवाजें ,बंदरों की मस्ती , हरे- भरे पेड़ ,सुनहरी मिट्टी ,खुला आसमान ,चारों तरफ दूर-दूर तक सूरज की किरणों से खिलते धरती के रंग ,  मैं वर्णन नहीं कर सकती उस पूरे रस्ते का।  



ये रास्ता  कब चला  गया पता भी नहीं चला, हम कुसुम सरोवर पहुँच गए। वहाँ  पैरों की खड़ाऊ चढाने की प्रथा है ,सभी ने वहां पूजा कर खड़ाऊ चढ़ाई। लेकिन  मेरी इच्छा वहाँ के पंडित जी को देने की  नहीं हुई ,मैं किसी को ढून्ढ रही थी।  जिसे इनकी जरूरत हो, तभी, मुझे एक साधु बाबा मिले। मैंने उनसे पुछा- बाबा क्या आप खड़ाऊ पहनोगे? तो बाबा ने हँसते हुए कहा- हां बेटा ला जरूर पहनूँगा। मुझे बहुत अच्छा लगा, मैंने बाबा को खड़ाऊ पहनाई और उनका आशीर्वाद लेकर आगे की यात्रा  पर निकल पड़े। क्यों की, हम गोवर्धन के बाहर की तरफ से यात्रा कर रहे थे, इसलिए रस्ते में नारद कुंड ,अप्सरा कुंड ये सभी नहीं देख पाए। हमारे रस्ते में अब हमारे साथ गोवर्धन पर्वत जी चल रहे थे। मेरे साथ एक आंटी जी चल रही थी, उन्होंने बताया की गोवर्धन पर्वत के किसी भी पत्थर को गोवर्धन से बाहर नहीं ले जा सकते है। इनकी पूजा गोवर्धन में ही हो सकती है ,यदि कोई फिर भी यहाँ से बाहर ले जाने के लिए  पत्थर उठाना चाहता हो , तो पहले उसे  यहाँ उस पत्थर के बराबर सोने का पत्थर चढ़ाना पड़ता है। हमारे साथ के कई लोगों ने अपने घर की पूजा के लिए पहाड़ से पत्थर उठाये थे, पर ये सुनते ही सभी ने वापस रख दिए। जगह जगह की नयी- नयी कहानियां सुनकर जिज्ञासा और भी बढ़ जाती है। इतना विशाल ये गोवर्धन पर्वत जिसे कान्हा ने मात्र एक चीटकी ऊँगली पर उठा लिया था वो भी तीन दिनों तक। हम सोच भी नहीं सकते, कि वे कान्हा स्वयं कितने विशाल होंगे।  


 इस यात्रा में हमारे आगे- पीछे हमने कई अंग्रेजों को भी नंगे पैर चलते देखा।उनको इस प्रकार पदयात्रा करते देख हम सभी दंग रह गए थे। मन में एक ख़ुशी भी थी की वो हमारे कृष्णा को इतना मानते हैं। हरे कृष्णा हरे रामा का संगीत नाचते गाते लोग ,कुछ के हाथों में माला थी कुछ के हाथों में भजन की पुस्तक सभी भक्ति में लीनथेयहाँ का पूरा रास्ता किसी पेंटिंग के जैसा था। आगे बन्दर ज्यादा थे तो हमने रास्ता बदल कर अब गाँव के अंदर की तरफ से जाने का फैसला किया। आसान नहीं होता इतना रोज पैदल चलना, लेकिन आगे चलते लोगों के होंसले ,पीछे से आते लोगों का साथ ,आपके मन के विश्वास को टूटने नहीं देता। बहुत जरूरी है की पदयात्रा में आप एक ग्रुप के साथ रहो ,इससे रास्ता आसानी से कट जाता है। हम पुछरी का लोटा नाम की जगह पहुचने वाले थे। ये राजस्थान की बॉर्डर पर है। कहते है ये गोवर्धन पर्वत का आखिरी चोर है, इसलिए इसे पूँछ कहते है, यहाँ एक लोटा नाम का भगवान् का मित्र था, जिसने भगवान् के लिए भोजन बनाया और एक लोटे में भोग लगाया कान्हा ने उसे पुनः आकर खाने को कहा ,परन्तु कान्हा यहाँ कभी नहीं आये और वो मित्र यहाँ पत्थर के बन गए। इसलिए यहाँ लोटा चढाने की परम्परा है।


  
हम भी मंदिर में चढाने के लिए लोटा लेकर आये ,ये बहुत ही छोटा सा मंदिर था जहां चारों तरफ बहुत सारे बन्दर थे। यहाँ हनुमान जी का मंदिर था। ये स्थान इस परिक्रमा में बहुत ही महत्वपूर्ण है यहाँ की और भी कई कहानियां प्रचलित है। यहाँ सेआगे चल कर हम रस्ते में रुके और  थोड़ा चाय ,नाश्ता किया। 



अब हमें जतीपुरा मुखारविंद के दर्शन करने के लिए आगे बढ़ना था। जतीपुरा का मंदिर एक छोटे पहाड़ पर गाँव के बाहर है , हम जब पहुँचे तो मंदिर के पीछे सूर्योदय हो रहा था, सफ़ेद मंदिर लाल आसमान देख कर आखों को बहुत सुकून मिल रहा था। वहाँ हमने गिरिराज भगवान् जी  के मुखारविंद के दर्शन किये और दूध चढ़ाया। गुलाल से भगवान् के साथ होली खेली। सभी तरफ अलग- अलग गुलाल के रंगों से मंदिर रंगा हुआ था। पैरो में जगह जगह गुलाल बिखरी हुई थी। हम सभी ने प्रभु जी की गुलाल को एक दुसरे को भी लगाया। बहुत मजा आया। 


अब हमे पुनः दान घाटी मंदिर पहुँचना था। जहाँ से आज की हमारी परिक्रमा शुरू हुई थी। अब हम थक गए थे बस यूँ लग रहा था की जल्दी से वो मंदिर आ जाये। हमने रास्ता काटने के लिए एक- दुसरे से रेस की एक- दुसरे का होंसला बढ़ाते जा रहे थे। जल्दी ही हम मंदिर  पहुँच गए, वहाँ के दर्शन करके  हमने ऑटो किया और  कुलेल कुंड जो कि हमारा विश्राम स्थल था वहां पहुँच गए। वहाँ आरती करके ,  एक साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण किया। सभी अब आराम करने में व्यस्त थे ,सभी अपने पैरों में मेहंदी लगा- लगा कर पैरों को ठंडक दे रहे  थे। मैं आज की पूरी यात्रा के विषय में सोच रही थी। सभी बातें सभी दृश्य मेरी आखों के आगे आ रहे थे।ईश्वर की भक्ति एक ऐसा समुद्र है जिसकी कोई सीमा नहीं है, तभी तो आज वे अंग्रेज भी इतनी दूर हमारे कान्हा के रस में डूबे हुए थे. हम भी अपने- अपने घरों से परिवार से इतने दूर होकर भी खुश थे, ना कोई फ़िक्र थी, ना कोई परवाह, बस यहाँ की मिट्टी में यहाँ की हवा में घुलते जा  रहे थे,आज घर से निकले हुए पूरे आठ दिन हो गए थे, लेकिन मन आज भी यही  बोल रहा था, कि अभी तो शुरू किया है, अब तो मजा आने लगा है।  कल क्या होने वाला है इसका इन्तजार करते- करते हम कम्बल में घुस कर सो गए। कल गोवर्धन से आगे निकलना था। राधे राधे। 
  












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